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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ३४०
इविध परखी मन विसरामी, जिनवर गुरण जे गावे । दीनबन्धु नी महर नजर थी, 'श्रानन्दघन' पद पावे हो ।
शब्दार्थ - अवगरिये उपेक्षा करते हो । जुनो = देखो । रिसाणी = क्रोधित होकर | गाढ़ी = मजबूत | काढी = निकाल 1 करसाली = तीन दांतों वाली दन्ताली । लगते हो। परखी = परख कर, परीक्षा करके ।
मल्लि० ।। ११ ।।
निवारी = दूर करके । कारण = मर्यादा । तुरिय= चौथी । दुगंछा = घृणा | पामर = नीच ।
झाली = पकड़ी ।.
भाया अच्छे
श्रर्थ - भावार्थ - हे मल्लिनाथ जिनेश्वर ! आप इतनी शोभा प्राप्त करके भी सेवक की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? समवसरण के कारण तथा केवलज्ञान प्राप्त करने के कारण आपकी शोभा का पार नहीं है । क्या यही है आपकी महिमा ? जिस राग-भाव को अन्य लोग अत्यन्त सम्मान देते हैं उस राग एवं ममत्व को तो मूल से आपने उखाड़ फेंका है। इससे आपकी शोभा की श्रेष्ठता बढ़ गई है ।। १ ।।
अर्थ - भावार्थ - आत्मा के अनादि ज्ञानस्वरूप को आपने अज्ञान के आवरण से खींच कर बाहर निकाल दिया है, जिसके कारण उक्त अज्ञान दशा क्रोधित होकर चली गई । आपने उसे जाती हुई देखकर भी उसकी मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। आपने उस अनादि काल की अपनी सहचरी का तनिक भी विचार नहीं किया ॥ २ ॥
अठारह दोषों से रहित तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेश्वर के अनन्य उपासक अध्यात्मयोगी श्रीमद् श्रानन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि
वन्दन ।
x मैसर्स गुलाबचन्द जैन
पोलीथिन प्रिण्टर्स एण्ड सप्लायर्स दमन, वापी (गुजरात)