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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७४
अर्थ-चेतना कहती है कि जब मेरे साथ बीती कथा मैं कहती हूँ तो चेतनजी क्रोधित हो जाते हैं। इस कारण मेरा कोई जोर नहीं चलता। अब तो मेरा उद्धार तभी हो सकता है जब आनन्द के स्वरूप चेतन स्वामी मेरा हाथ पकड़ लें। उनके हाथ पकड़ने से मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जायेंगे, चेतन अपना स्वरूप प्राप्त कर लेगा ॥८॥
विवेचन-चेतना अपना हृदय खोलकर बात कहती है कि अपने स्वामी की कृपा के बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती।
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(राग-सोरठ गिरनारी) छोरा ने क्यू मारे छे रे, जाये काट्या डैण ।। छोरो छे म्हारो बालो-भोलो, बोले छे अमृत वैण ।।
. . छोरा० ॥ १ ॥ लेय लकुटिया चालण लाग्यो, अब कांइं फूटा नैण । तू तो मरण सिराणे सूतो, रोटी देसी कैण ।।
- छोरा० ।। २ ॥ पाँच पचीस पचासा ऊपर, बोले छे सूधा बैरण । प्रानन्वघन प्रभु दास तुम्हारो, जनम-जनम के सैण ।।
छोरा० ।। ३ ॥ अर्थ -सुमति मिथ्यात्व को कहती है कि हे पुत्र-घातक अविचारी बुड्ढे ! तू मेरे सम्यक्त्व रूप पुत्र को क्यों पीटता है ? यह मेरा क्षयोपशम रूप नव-जात शिशु सम्यक्त्व अभी तो अत्यन्त नादान, नासमझ और भोला है जो अमृत तुल्य मधुर बोलता है ॥१॥
विवेचन -सुमति मिथ्यात्व को कहती है कि तू मेरे सम्यक्त्व रूप पुत्र को प्रमादवश क्यों पीटता है ? इससे तेरा कोई उत्थान होने वाला नहीं है। यह भोला बालक जीव-दया, ब्रह्मचर्य-पालन, स्वार्थ-त्याग की बातें करता है। यह काया को वश में रखने, पाँच इन्द्रियों के विषयों को जीतने और बुरो इच्छाओं को दबाने के अमृत तुल्यं वचन बोलता है। अतः इस निर्दोष बालक को पीटना नहीं चाहिए।