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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१७३ विवेचन–कतिपय पक्ष वाले तर्क करने में, अपने पक्ष का मण्डन करने में और अनेक युक्तियों से विपक्ष का खण्डन करने के कार्य में मेरा उपयोग करते हैं। कतिपय मत वाले राग-द्वेष के कारण अपने-अपने पक्ष में मेरा उपयोग करते हैं। अनन्त केवलज्ञानी महावीर परमात्मा ने जगत् में समस्त धर्मों में विद्यमान अनन्तधर्म बताने के लिए अनेकान्तवाद की प्ररूपणा की है। अर्थ-चेतना कहती है कि संसार में जो बलवान हैं वे दुर्बलों को दूर हटा देते हैं। अनेक मत वाले परस्पर शास्त्रार्थ करते हैं। जिसको बुद्धि तेज है वह दूसरे को परास्त कर देता है, परन्तु जो समान रूप से बलवान हैं, तीक्ष्ण बुद्धि वाले हैं, वे परस्पर झगड़ते ही रहते हैं। न तो कोई किसी को परास्त कर सकता है और न अपना पक्ष छोड़ सकता है। ऐसे बड़े योद्धाओं, अपने-अपने पक्ष के मोह में रहने वालों के मध्य में मैं अबला क्या बोल सकती हूँ ? ऐसे एकान्तवादियों में मैं क्या कर सकती विवेचन -चेतना कहती है कि भिन्न-भिन्न पक्ष वाले मुझे अपने पक्ष में खींच कर अनेक प्रकार के खण्डन-मण्डन करते हैं। जैनधर्म के प्रवर्तक, प्राचार्य, साधु आदि गच्छ क्रिया के भेद से संकुचित दृष्टि रखकर परस्पर चर्चा करते हैं। अर्थ-चेतना कहती है कि मुझसे जिस-जिस ने जो-जो कराया, मैंने वही किया, जिसका वर्णन करने में भी मुझे लज्जा आती है। जिसकी जैसी मान्यता थी तदनुसार मुझे बनना पड़ा, यह बताने में मुझे लज्जा आती है। मैंने संक्षेप में जो कहा है उसे विस्तारपूर्वक समझ लेना क्योंकि मेरे घर की व्यवस्था ठीक नहीं है। मेरे स्वामी चेतन विभाव दशा में भ्रमण करते रहते हैं। जब निज भाव में प्रायें तब ही कुछ बात बन सकती है ।। ७ ॥ विवेचन-चेतना कहती है कि मोह-योद्धा के वशीभूत हुए एकान्तवादियों ने जो-जो मिथ्या आचरण किया और जो-जो मन, वाणी और काया से मिथ्या प्रवृत्ति कराई, उसे व्यक्त करने में मुझे लज्जा आती है। मोह राजा ने क्रोध-मान-माया से मुझसे अशुभ विचार कराये; लोभ, ईर्ष्या तथा निन्दा से अशुभ विचार कराये; हिंसा, असत्य, व्यभिचार, परिग्रह, विश्वासघात के विचार कराये और समस्त जीवों को अपने अधीन किया। मेरा स्वामी चेतन मुझे प्राप्त हो जाये ऐसा प्रतीत नहीं होता।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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