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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७२ अनुयायियों ने मुझे अपने रंग में रंग कर भक्तिन बना ली। इसी तरह से अन्य मत वालों ने मुझे अपने-अपने मत की बना ली। अतः चेतना कहती है कि मुझे किसी ने निष्पक्ष नहीं रहने दिया ।। २ ।। विवेचन-विभिन्न मत वाले चेतना को अपने पक्ष में खींच कर वैसी मतवाली बना देते हैं। सचमुच अज्ञानी जीव भगवान महावीर जिनेश्वर कथित धर्म का परित्याग करके अन्य मतों में फंस जाते हैं। . अर्थ -राम के अनुयायियों ने मुझे राम-नाम लेने वाली बना दी, रहमान के भक्तों ने मुझे रहमान की प्रार्थना सिखाई और अरिहन्त के उपासकों ने मुझे अपना पाठ पढ़ाया। इस प्रकार मैं मत-मतान्तरों में फंसी रही। मैं चेतना और चेतन के सम्वन्ध से सदा दूर ही रही विवेचन समस्त पंथ वाले मुझे अपने पंथ में खींचकर मुझसे . अपना कार्य करते हैं परन्तु उससे मेरे चेतनस्वामी और मेरी सगाई,नहीं होती तथा मेरी मुक्ति नहीं होती। अर्थ-किसी ने मेरा मुण्डन कराया, किसी ने मेरे केश उखाड़कर लोच कराया, किसी ने लम्बी-लम्बी जटाएं लपेटी, किसी ने मुझे जाग्रत किया और किसी ने मुझे सोती हुई रखा अर्थात् भिन्न-भिन्न मत वालों ने भिन्न-भिन्न रूप से धर्म-क्रियाएँ की; किन्तु अभी तक मेरी विरह-वेदना को किसी ने दूर नहीं किया ।। ४ ।। विवेचन-समस्त पक्ष वाले मुझे भिन्न-भिन्न तरह से अपने पक्ष में लेते रहे। बाह्य दृष्टिधारक मिथ्यादर्शनियों में निष्पक्ष स्याद्वादरूप सत्य पक्ष रखने वाला मुझे कोई नहीं दिखाई दिया। उनसे मेरी विरह-वेदना दूर नहीं हुई। अर्थ-मेरी विभिन्न स्थानों पर कैसी दशा हुई। किसी ने मेरी स्थापना की आत्मा है, किसी ने मेरा अस्तित्व ही उखाड़ दिया कि आत्मा नामक कोई वस्तु ही नहीं है। यह तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - इन पाँच महाभूतों का खेल है। इस प्रकार किसी ने मेरा अस्तित्व चलता किया और किसी ने उसकी रक्षा की। मुझे एक भी ऐसा पक्ष वाला दिखाई नहीं दिया जो दूसरे का साक्षी हो। अर्थात् सब एक-दूसरे का खण्डन करते ही दिखाई दिये ।। ५ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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