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________________ . श्री आनन्दघन पदावली-१७१ जे जे कीधु जे जे कराव्यु, ते कहता हूँ लाजू । थोड़े कहे. घणुप्रीछी लेजो, घर सूतर नहीं साजू ।। मायड़ी० ।। ७ ।। आप बीतो कहता रिसावे, तेहि सू जोर न चाले । प्रानन्दघन प्रभु बांहड़ी झाले, बाजी सघली पाले ।। मायड़ी० ।। ८ ॥ अर्थ-प्रस्तुत पद में योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी महाराज ने दिग्दर्शन कराया है कि संसार के मत-मतान्तरों के प्रात्मा चेतन और आत्मत्व चेतन के सम्बन्ध में क्या विचार हैं और मोक्ष कैसे प्राप्त होता है। वे कहते हैं कि मुझे किसी भी मत (पक्ष) वाले ने निष्पक्ष नहीं रहने दिया। मैंने निष्पक्ष रहने के लिए अनेक विलाप किये, प्रयास किये, परन्तु किसी ने मुझे निष्पक्ष रहने नहीं दिया। धीरे-धीरे मेरे कान भरे और मुझे अपने पक्ष का बना लिया और मुझे वैसा बन जाना पड़ा। प्रात्मा का स्वभाव नो शुद्ध चेतनत्व है। जिस कुल में आत्मा उत्पन्न होती है उसके अनुरूप उसके प्राचार-विचार हो जाते हैं ॥ १ ॥ विवेचन-चेतन एवं चेतना पृथक्-पृथक नहीं हैं, फिर भी समझने के लिए उन्हें पृथक दिखाने की कल्पना की गई है। पद में चेतना अपनी विवंशता और व्यथा बताती है। आत्मा-चेतना जिस धर्म, मत अथवा कुल में उत्पन्न होती है, वह वैसी ही बन जाती है। उसके वास्तविक रूप एवं ध्येय का उसे भान ही नहीं रहता। आत्मा को मोक्ष प्राप्त करने में कोई भी मत, पक्ष, स्वरूप, स्थान तथा अवस्था बाधक नहीं है। आत्मा तो क्रमशः अपना विकास करता हुआ एक दिन शुद्धबुद्ध बन जाता है। चेतना कहती है कि जिनेश्वर सर्वज्ञ महावीर भगवान के वचनानुसार निष्पक्ष रहने के लिए मैंने बहुत कल्पान्त किये, परन्तु पक्ष वालों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से मेरा स्वरूप विष-मिश्रित अन्न-सा बना दिया। विभिन्न मत वाले दृष्टि-राग के बल से असत्य सिद्धान्तों को सत्य स्वीकार कर लेते हैं । अर्थ-चेतना कहती है कि योगियों ने मुझ योगिनी बना लिया और यतियों ने (जितेन्द्रियों ने) मुझे यतिनी बना ली। भक्ति-मार्ग के
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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