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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १७०
अर्थ – जो अपने रूप का स्पर्श करे उसे पार्श्वनाथ कहना चाहिए और जो ब्रह्म को पहचाने वह ब्रह्मा है । योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि इस आनन्दमय परम तत्त्व की मैंने इसी प्रकार आराधना की है । यह परम तत्त्व तो निष्कर्म ज्ञाता, द्रष्टा, चैतन्यमय है ॥ ४ ॥
विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जिन्होंने क्षायिक भाव से अपने स्वरूप का स्पर्श किया अर्थात् प्राप्त किया ऐसे तेईसवें तीर्थंकर. को पार्श्वनाथ कहा जाता है । जो बहिरात्मदशा की भ्रमरणा का त्याग करता है, उसे ब्रह्मा कहा जाता है ।
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(राग - मारू जंगलो )
मायड़ी मूने निरपख किरण ही न मूकी ।
निरपख रहेवा घणुं ही भूरी, घी में निजमति फूकी । मायड़ी ० ।। १ ।।
जोगिये मिलो ने जोगरण कोधी, जतिये कीधी जतनी । भगते पकड़ी भगतरणी कोधी, मतवाले कीधी मतणी ॥ माड़ी ० ।। २ ।।
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राम भरणी रहमान भरणावी, अरिहन्त पाठ घर-घर ने हूँ धंधे विलगी, अलगी
जीव
पढ़ाई |
सगाई ||
मायड़ी ० ।। ३ ।।
कोइये मुंडी कोइये लोची, कोइये केस लपेटी । कोई जगावी कोई सूती छोड़ी, वेदन किरणही न मेटी ||
ठींगो
धींगो दुरबल ने ठेलीजे, ने ठेलीजे, अबला ते किम बोली सकिये, बड़
मायड़ी ० ।। ४ ।।
कोई थापी कोई उथापी, कोई चलावी कोई राखी । एक मनो में कोई न दीठो, कोई नो कोई नहि साखी ||
मायड़ी ० ।। ५ ।।
बाजे ।
राजे ||
मायड़ी ० ।। ६ ।।
ठगो
जोधाने