________________
श्री आनन्दघन पदावली-१६६
से अथवा कोई-पार्श्वनाथ के नाम से, चाहे ब्रह्मा के नाम से सम्बोधित करे, परन्तु वह महाचैतन्य स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही है ।। १ ।।
विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि लोग परमात्मा के बिभिन्न नाम देकर विपरीत अर्थ की कल्पना करके परस्पर लड़ते हैं और एक-दूसरे के देवता का खण्डन करते हैं। समस्त जीवों में ब्रह्म व्याप्त है। तात्पर्य यह है कि समस्त जीवों में ज्ञान की सत्ता है। संग्रह-नय की अपेक्षा से सत्ता के द्वारा सभी आत्माएँ समान हैं। - अर्थ - मिट्टी का तो एक ही रूप है परन्तु भाजनों के नाम भिन्नभिन्न होते हैं। किसी को घड़ा, किसी को कूडा, किसी को गिलास और किसी को लोटा कहते हैं। इसी तरह इस परम तत्त्व के कल्पना से भिन्न-भिन्न भाग किये गये हैं, परन्तु वह तो सचमुच अखण्ड स्वरूप है ।। २ ।।
विवेचन--श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि यदि पचास अथवा उससे भी अधिक विभिन्न बर्तन बनाये जायें तो भी वे मिट्टी की अपेक्षा तो मिट्टी रूप ही हैं। उनमें कोई भेद नहीं है। आकार की अपेक्षा वे भिन्न-भिन्न गिने जाते हैं। व्यवहार नय की अपेक्षा व्यक्ति से समस्त आत्माएँ भिन्न-भिन्न हैं। संग्रहनय की सत्ता से सब आत्माएँ एक रूप हैं। . अर्थ - जो निज स्वरूप में रमण करता है उसे राम कहना चाहिए जो प्राणी मात्र पर दया करे उसे रहमान कहना चाहिए, जो ज्ञानावरण
आदि कर्मों को नष्ट करे उसे कान्ह (कृष्ण) कहना चाहिए और जो निर्वाण प्राप्त करता है उसे महादेव कहना चाहिए ।। ३ ।।
.. विवेचन-श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि जो अपने शुद्धात्मस्वरूप में रमणता करता है, उसे राम कहा जाता है; जो जीवों के प्रति दया करता है, जो समस्त जीवों के प्रति दया का उपदेश देता है तथा जो द्रव्य-दया एवं भाव-दया का सागर है, उसे रहमान कहा जाता है। जो आत्मप्रदेशों से कर्मों को खींच कर बाहर निकालता है, जो राग-द्वेष नहीं रखता, वैराग्य-त्याग और ब्रह्मचर्य के द्वारा जो अपने स्वभाव में रमण करता है, साधु-मार्ग की आराधना करता है और प्रमाद दशा का परित्याग करके जो अप्रमत्त दशा में रमण करता है उसे कृष्ण कहा जाता है और जो अष्टकर्मों का क्षय करके पंचम गति में गये हैं उन्हें महादेव कहा जाता है।