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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६८
नहीं हूँ। न मुझे राज्य एवं समाज से कोई काम है। मुझे तो निरन्तर साधुओं की संगति प्राप्त होती रहे, यही मेरी कामना है ॥ ४ ॥
विवेचन -जैनशासन का प्राण साधुवर्ग है। हमें उनकी उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए। यदि सहजानन्द का आविर्भाव करना हो और आनन्द की वास्तविक खुमारी का उपभोग करना हो तो साधुओं की संगति करनी चाहिए। साधुओं की संगति से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। साधु में विद्यमान एक दोष से उसके अन्य गुणों को भी दोष रूप मान लेने का नीच स्वभाव त्याग देना चाहिए। इसी कारण योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी देव, असुर तथा इन्द्र के पद की भी अभिलाषा न करके राज्य-कार्य की भी कामना नहीं करते। वे तो निरन्तर साधुओं की निर्मल संगति में रहना चाहते हैं। .
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(राग-प्रासावरी) राम कहो, रहिमान कहो कोउ, कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री ।।
. राम० ॥ १ ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खंड कलपनारोपित, आप अखंड सरूप री॥
. राम ।। २ ।। निज पद रमे राम सो कहिये, रहम करे रहमान री। करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री ।।
- राम ।। ३ ।। परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विध साध्यो आप प्रानन्दघन चेतनमय निःकर्मरी ।।
राम० ।। ४ ।। अर्थ-उस परम तत्त्व को चाहे कोई राम के नाम से सम्बोधित करे, चाहे रहमान के नाम से, चाहे कृष्ण के नाम से, चाहे महादेव के नाम