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श्री आनन्दघन पदावली - १६७
से जगत् को महान् लाभ होता है । पैंतालीस ग्रागमों में साधुओंों का महत्त्व प्रदर्शित किया गया है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि – इस अष्टांग योग की साधु आराधना करते हैं । उपर्युक्त पद से अनुमान होता है कि श्रीमद् आनन्दघनजी को साधुओं की संगति से अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ होगा ।
अर्थ – सन्त पुरुष कल्प वृक्ष के समान इच्छित फल देने वाले हैं तथा त्रिविध ताप को दूर करने वाले हैं । अतः वे शीतल एवं फलयुक्त हैं सदा इनकी सुखद छाया का सेवन करो। इससे वांछित फल की प्राप्ति होती है और अवांछित वस्तुएँ दूर हो जाती हैं तथा भव- सन्ताप अर्थात् भंव भ्रमण का नाश हो जाता है ।। २ ।
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी ने साधुओं को कल्पवृक्ष बताया है । उनकी शीतल छाया से आत्मा आनन्दमय हो जाती है । जिस प्रकार कल्पवृक्ष अनेक प्रकार की चिन्ताएँ नष्ट कर देता है, उस प्रकार साधुरूपी कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की चिन्ता नष्ट करने में समर्थ होता है । कल्पवृक्ष की तरह साधु भी वांछित फल प्रदान करते हैं । सूर्य के ताप से संतप्त मनुष्य जिस प्रकार कल्पवृक्ष का आश्रय लेकर अपना ताप शान्त करते हैं, उस प्रकार साधुरूपी जंगम कल्प वृक्षों का आश्रय प्राप्त करके मनुष्य भव-सन्ताप शान्त करते हैं । मनुष्यों का मन क्रोध, मान, माया और लोभ के ताप से संतप्त रहता है । साधु की संगति हो जाने से क्रोध, मान, माया और लोभ का आवेग नष्ट होता है और मनुष्यों को शान्ति प्राप्त होती है । इसी कारण से साधु को कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है जो सर्वथा उचित है ।
अर्थ - कुशल ब्रह्मा भी सन्त पुरुषों के चरण-कमलों के पराग को चाहते हैं । सन्त-जन भ्रम रूपी कोहरे को नष्ट करके शुद्ध परमात्मा रूप चन्द्रमा के दर्शन करा देते हैं ।। ३ ।।
विवेचन - साधु की संगति के बिना आत्मा भटकती रही । सद्गुरु की संगति से ही वह अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानती है । भगवान महावीर ने प्रथम भव में सार्थवाह के रूप में साधु की संगति से सम्यक्त्व प्राप्त किया था । साधु- संगति मोक्ष का द्वार है ।
अर्थ- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी महाराज साधु-संगति की कामना करते हुए कहते हैं कि मैं देव, असुर अथवा इन्द्र - पद का अभिलाषी