________________
योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८८
( ७ )
राम रस मुहंगा रे भाई, जाको मोल सुनत घर जाइ । राम० जेणे चाख्या सोई जाणे, मुख सु कहे सो झूठ । या हम तुम से बहुत कही परमावे सारो ही कूड ।
राम० ।। १ ।।
दर्शन-दर्शन भटकियो, सिर पटक्यो सौ वाट वटाऊ पूछियउ, पायो न ए रस र
तप जप किरिया थिर नहीं, ज्ञान विज्ञान प्रज्ञान । साधक बाधक जारिणयउ, और कहा
परमाण |
द्वैत भाव भासे नहीं, द्वौत ध्यान वृथा सही है, इक होय
बार |
सार ।
राम ० ।। २ ।।
!
राम० ।। ३ ।।
ग्राहक घर ही जान ।
i
सुजान ।
राम ० ।। ४ ।
झटा वधार भये नर मुनि, मगन भय चंबडी ऊपर खाख लगाई, फिर जैसा
हाय कामना वश तुम्हें मंत्र जंत्र नहीं अनुभवगम्य विचारिये, पावे ' श्रानन्दघन'
तंत |
विरतंत ।
रामं०
( 5 )
कूडी दुनिहंदा बे अजब तमासा |
पाणी की भींत, पवन का थंबा, वाकी कब लग आसा ।
० ।। ५ ।।
डी० ॥ १ ॥
जैसा भैंसा ।
का तैसा ।
कूडी ० ।। २ ।।