________________
योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १८४
अर्थ - श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि इससे एक कौड़ी की भी गर्ज पूरी होने वाली नहीं है । यह अनुभव - विवेक आदि गुरुजन का नाश करने वाली है । यह दासी सुमति आपको माया के समस्त गुण बता रही है । हे चेतन ! आप सुनें और माया की संगति छोड़ दें ।। ३ ।।
विवेचन - सुमति कहती है कि हे चेतन ! यह माया किसी काम की नहीं है । यह विवेक, अनुभव आदि का नाश कर डालती है । मैं आपकी दासी आपको माया के गुण बता रही हूँ, आप कृपया सुनें ।
( ७१ ) (राग - तोड़ी )
साखी - प्रातम अनुभौ रस कथा, प्याला अजब विचार | अमली चाखत ही मरे, घूमे सब संसार || साखी || प्रतम अनुभौ रीति वरी री ।
मोर बनाइ निज रूप अनुपम, तीछन रुचिकर तेग करी री । प्रातम० ।। १ ।।
पहेरी री ।
मुँह निसरी री ॥
प्रतिम० ।। २ ।।
टोप साह सूर को बानो, इकतारी चोरी सत्ताथल में मोह विडारत, ए ए सुरजन
केवल कमला अपछर सुन्दर, गान करे रस रंग भरी री । जीति निसारण बजाइ बिराजे, आनन्दघन
सरवंग धरी री ॥
आतम० ।। ३ ॥
साखी - अर्थ - यह साखी अनेक प्रतियों में नहीं है । आत्मानुभव रसकथा का विचार अद्भुत है । इस रस के प्याले को नशेबाज चखते ही मर जाता है अर्थात् जो इस पर अमल करता है वह इस पर आसक्त हो जाता है, अन्य लोग घूमते ही रहते हैं । ( साखी)
अर्थ - श्रद्धा ने सुमति को पूछा कि आत्मा ने अनुभव - दशा के साथ कैसे विवाह किया ? सुमति उत्तर देती है कि चेतन ने निज स्वरूप रूपी अनुपम मुकुट धारण किया और फिर स्वरूप - प्राप्ति के लिए अगाध रुचि रूपी तीक्ष्ण तलवार हाथ में ली ।। १ ।।