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श्री श्रानन्दघन पदावली - १८५
विवेचन – यह पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यदि इस एक ही पद का जीव को लक्ष्य रहे तो उसे सिद्धि प्राप्त करने में विलम्ब नहीं लगेगा । जिसे प्रात्मानुभव प्राप्त करना हो, उसे सर्वप्रथम अपना ध्येय निश्चित करना पड़ता है । यहाँ साधक का लक्ष्य है – 'निज स्वरूप प्रकट करना ।' कायरों को, अस्थिर विचार वालों को इस मार्ग में सफलता नहीं मिलती। यह वीरों का मार्ग है । 'करूंगा या मरूंगा' का विचार रखने वाला ही इसमें सफलता प्राप्त करता है । केवल इच्छा करने से ही कोई वस्तु प्राप्त नहीं हो जाती । तीव्र रुचि एवं दृढ़ संकल्प के बिना किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती । तीव्र रुचि वाला विघ्न-बाधाओं से घबराता नहीं । उसे मृत्यु का भय नहीं रहता । जिसने अपने स्वरूप को समझ लिया है, वही मृत्यु का भय छोड़ सकता है । यह आत्मा अविनाशी है । देह नश्वर है । यदि मृत्यु का भय जीतने का अभ्यास किया जाये तो एक न एक दिन सफलता प्राप्त हो ही जाती है । हमने अनेक बार स्व-कल्याण की इच्छा की, हम मोक्षाभिलाषी कहलाये किन्तु इस इच्छारूपी यथाप्रवृत्तिकरण में ही रहे, तीव्र रुचि रूप अपूर्वकरण को प्राप्त नहीं किया । अपूर्वकरण के बिना न तो कभी किसी को स्वरूप ज्ञान प्राप्त हुआ है और न होगा । इस तीक्ष्ण रुचि रूपी तलवार से ही मोह का नाश किया जा सकता है और सम्यग् - दृष्टि प्राप्त की जा सकती है ।
सुमति श्रद्धा को कहती है कि मेरे स्वामी की उस समय अपूर्व शोभा है । उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने का ही उन्होंने वेष धारण किया हो । तीव्र रुचि रूपी तलवार धारण की हुई देखकर लगता था कि अब तो स्वामी मोह - शत्रु की सेना को छिन्न-भिन्न कर देंगे ।
अर्थ - वीर वेष धारण करके अर्थात् समता रूपी टोप, त्याग एवं ब्रह्मचर्य रूपी कवच और तीव्र भावना रूपी चोली पहनकर मोह को सत्ता से इस प्रकार छिन्न-भिन्न किया कि अनुभवी पण्डितों के मुँह से प्रशंसात्मक शब्द निकल पड़े । मोहराजा से संघर्ष करने के लिए समता, त्याग एवं एकाग्रता की आवश्यकता होती है । मानसिक, वाचिक तथा कायिक चंचलता के त्याग के बिना मोह - शत्रु का प्राक्रमण सहन करने की शक्ति प्राप्त नहीं होती। इसके लिए एकाग्रता की अत्यन्त आवश्यकता है । यही शक्ति सर्वसिद्धि दाता तथा आत्म-शत्रुनाशक है ।। २ ।।