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________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२१६ __ विवेचन -हे मन! तू मदोन्मत्त होकर रात-दिन स्वेच्छानुसार कल्पित सुख के भ्रम में परिभ्रमण करता है। सोलह कषाय, नौ नोकषाय और तीन दर्शनमोहनीय -इस प्रकार मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृति है। यदि मन आत्मा के सम्मुख रहे तो मोहनीयकर्म की नींद का नाश होता है। अतः हे मन! तू मोह-नींद से जाग्रत हो और परमात्मा के स्वरूप में तन्मय हो जा। __. अर्थ - हे मन ! ये जिनेश्वर भगवान ही तेरे वास्तविक प्रियतम हैं। तेरा अन्य कोई प्रियतम नहीं है। अतः तू इन जिनेश्वर भगवान के चरणों की पूजा की अधिकतम याचना कर, तू उस पूजा में लीन हो जा ॥२॥ विवेचन -हे मन ! यदि तू भ्रम-वश जड़ वस्तुओं को प्रिय मानता रहा तो भी ये तेरी बनने वाली नहीं हैं । एक जिनेश्वर भगवान ही सच्चे प्रीतम हैं। अतः तु निश्चय कर ले कि जिनेश्वर भगवान के बिना अन्य कोई तेरा प्रीतम नहीं है। तू भगवान की पूजा की याचना कर। जब तू जिनेश्वर भगवान की पूजा में लीन हो जायेगा तब तू आनन्द के नशे में तर हो जायेगा। ज्ञानमय पूजा-भक्ति में लीन होने पर तू आनन्द की खुमारी का अनुभव करेगा। अर्थ - हे जिनचंद, आनन्द के समूह जिनेश्वर भगवान के चरणों में लग कर संसार के आवागमन को दूर कर ।। ३ ।। विवेचन हे मन ! भव-भ्रमण का निवारण करने वाली श्री जिनेश्वर भगवान की भाव-पूजा में तू तन्मय हो जा, मग्न हो जा। तू उन आनन्द के समूह जिनेश्वर भगवान के चरणों में शीश नवा । श्री जिनेन्द्र भगवान अठारह दोषों से रहित हैं, वे अनन्त गुणों के आगार हैं। उनका ध्यान करने से आत्मा शुद्ध बनती है, निर्मल बनती है और उनके ध्यान में लीन रहने से आत्मा परमात्मा रूप बन जाती है। (११) ( राग-सोरठ) निराधार केम मूकी, श्याम मुने निराधार केम मूकी ? कोई नहीं, हूँ कुणसु बोलू, सहू पालम्बन टूकी ।। __ श्याम० ।। १ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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