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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२१८ करने लगी, त्यों-त्यों आनन्द-मेघ-वृष्टि की झड़ी लग गई। ऐसी वृष्टि होने लगी कि मयूर का शब्द भी सुनाई नहीं देता था। सर्वत्र असंख्यात प्रदेशों में नख-शिख पर्यन्त आनन्द व्याप्त हो गया। आनन्दघन स्वामी के संग से त्रिविध ताप नष्ट हो गये। कोई भी उपद्रव नहीं रहा। मन की चंचलता से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के विकार शान्त हो गये। उसके असंख्यात प्रदेश रूपी घर में ज्ञानादि अनेक गुण प्रकाश उत्पन्न करने लगे, जिससे वह सचमुच सौभाग्यशालिनी बन गई। हे अवधूत आत्मन् ! यह सब आपकी कृपा का ही सुफल है। आपकी कृपा-दृष्टि से दुःखी मनुष्य भी सत्य सुख के भोक्ता बनते हैं। श्रीमद्. आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसी उच्च प्रकार की सुखमय.दशा होने से आपकी ही शोभा है। ( १०) ( राग-काफी ) . ए जिनके पाय लाग रे, तूने कहिये ये केतो। पाठोइ जाम फिरे मदमातो, मोह निदरिया सुजाग रे ।। । तूने० ।। १ ।। प्रभुजो प्रोतम बिन नहीं कोई प्रीतम । प्रभुजी नी पूजा घणी मांग रे ।। तूने० ।। २ ।। भव फेरा वारी करो जिनचंदा, आनन्दघन पाय लाग रे ।। तूने० ।। ३ ।। नोट-प्रस्तुत पद की भाषा-शैली श्रीमद् प्रानन्दधनजी की भाषा-शैली से भिन्न है। अतः यह पद उनका नहीं प्रतीत होता। यह पद शंकास्पद है। यह पद 'जिनचंद' नामक किसी कवि का होना चाहिए। अर्थ-हे मन! मैंने तुझे कितना कहा कि तू श्री जिनेश्वर भगवान के चरणों में लीन हो जा। तू आठों पहर मोह-नींद में मस्त होकर फिरता है। अरे मन! अब तो तू इस मोह-नींद से जाग्रत हो ॥१॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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