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श्री आनन्दघन पदावली-२१७
रहतो, वह अपने स्वामी की बदनामी कराती है। अतः अपना सहज स्वभाव छोड़कर कदापि कृत्रिम स्वभाव धारण नहीं करना चाहिए। 'प्रतिपल चड़ियों पर दृष्टि पड़ती है जिससे चेतना पौद्गलिक भाव में नहीं रंगती। उसने स्थिरता रूपी बहुमूल्य कंगन पहने हैं। मोहनीय कर्म का क्षय होने पर स्थिरता गुण प्रकट होता है। स्थिरता रूपी कंगन सूचित करते हैं कि नित्य आत्म-स्वामी की आज्ञा में स्थिर रहना चाहिए, कदापि चंचल नहीं होना चाहिए। उसने गले में ध्यान रूपी उरवशी धारण की है। ध्यान रूपी उरवशी सीने पर रहने से किसी ओर से कोई पीड़ा नहीं होती। ध्यान के कारण मोह-शत्रु का जोर नहीं चलता। ध्यान से अनेक कर्मों की निर्जरा होती है और परमात्मपद प्राप्त किया जा सकता है।
___ अर्थ-चेतना ने अनुभव ज्ञान रूपी दर्पण में प्रतिबिम्ब देखकर शुद्धोपयोग रूपी सुन्दर रंग वाला सिन्दूर मांग में भरा और पति के गुणों की तन्मयता रूपी वेणी को सजाया, जिससे हृदय में एक नूतन ज्योति का प्रकाश फैल गया ॥ ४ ॥
विवेचन अपने स्वामी के शुद्ध गुणों में रमण करने को, अपने स्वामी के साथ असंख्य प्रदेशों रूपी अंगों का आलिंगन करने को 'सुरत' कहते हैं। चेतना ने सुरत रूपी सिन्दूर मांग में लगाया है। बाह्य जगत् के खेल से निवृत्त चेतना ने विरति वेणी को सजाया है। वह जड़ पदार्थों पर रति धारण नहीं करती। ऐसी स्थिति में वह स्वामी के महल में गुणस्थान रूपी सीढ़ियों पर होकर जाने लगी, उस समय वहाँ अनुभव ज्ञान रूपी प्रकाश प्रकट हुआ जिससे हृदय में अनुभव रूपी दर्पण के द्वारा तीन लोकों के पदार्थ प्रकाशित होने लगे। . अंर्थ--इस प्रकार शृगार सजने पर हृदय में अजपा जाप की ध्वनि उत्पन्न हुई और द्वार पर अनहद नाद के विजय नगारे बजने लगे, जिससे आनन्द मेघों की झड़ी लग गई और मन-मयूर उस आनन्द में लोन हो गया ॥५॥
विवेचन -अपने स्वामी के साथ रहने से अजपा जाप की ध्वनि उत्पन्न हो गई और चेतना अपने आत्म-स्वामी 'सोऽहं'-'सोऽहं' तथा 'हंसहंस' का जाप करके स्मरण करने लगी। स्वामी का स्मरण करतेकरते विजय के नगारों की अनहद ध्वनि प्रकट होने लगी। अन्तर में आनन्द छा गया। ज्यों-ज्यों वह उनके स्वरूप में शुद्ध उपयोग से रमण