SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२२० प्राणनाथ तुमे दूर पधार्या, मूकी नेह निरासी। जण जणना नित्य प्रति गुण गातां, जनमारो किम जासी ?? श्याम० ।। २ ।। जेहनो पक्ष लहीने बोलू, ते मन मां सुख प्राणे । जेहनो पक्ष मूकी ने बोलू, ते जनम लगे चित्त ताणे । श्याम० ॥ ३ ॥ बात तमारी मन मां आवे, कोण आगल जई बोलू। .. ललित खलित खल जोते देखू, प्राम माल धन खोलू ।। - श्याम० ।। ४ ।। घटे घटे छो अन्तरजामी, मुज मां कां नवि देखू। जे देख ते नजर न आवे, पुणकर वस्तु विसेखू ।। .. . श्याम० ।। ५ ॥ अवधे केहनी वाटडी जोऊँ, विण अवधे अति. झूरू। आनन्दघन प्रभु वेगे पधारो, जिम मन आशा पूरूँ ।। श्याम० ।। ६ ॥ नोट-इस पद की भाषा-शैली देखने से यह भी शंकास्पद प्रतीत होता है। अर्थ चौथे गुणस्थान से च्युत चेतनराज को दु:खी चेतना कह रही है --हे नाथ ! आपने मुझे बिना सहारे के क्यों छोड़ दिया है ? कारण तो बताइये। मेरा तो अब कोई नहीं है। मैं किसके साथ दिल खोल कर बात करूँ? मेरे तो समस्त अवलम्ब दूर हो गये हैं ।। १॥ विवेचन -आत्मा प्रथम गुणस्थान से जब चौथे गुणस्थान में जाती है तब उसे सम्यक्त्वदृष्टि की प्राप्ति होती है। जब आत्मा चौथे गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में आती है तब सम्यक्त्व-दृष्टि का रूप परिवर्तित हो जाता है और वह मिथ्यादृष्टि का रूप धारण करती है। आत्मा के प्रथम गुणस्थान में जाने पर सम्यक्त्वदृष्टि का कोई आधार नहीं रहता। उस समय सम्यक्त्वदृष्टि के उद्गार भिन्न प्रकार के निकलते हैं।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy