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________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५४ से बेल का थड़ उत्पन्न होता है और बेल बड़ी होने पर उसमें से पत्त निकलते हैं और फिर फल आते हैं और तत्पश्चात् बड़ा तूम्बा फल के रूप में उत्पन्न होता है, जिसका तम्बूरा बनाया जाता है। इस प्रकार तम्बूरे का उद्भव होता है। आत्मा रूपी तम्बूरे का थड़, पत्ते, फल आदि कुछ नहीं है। प्रात्मा रूपी तम्बूरा परा भाषा से भगवान के गुण गाता है। आत्मारूपी तम्बूरे का गायक आत्मारूपी गवैया है, जिसका रूप अथवा रेखा कुछ भी नहीं है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, अत: उसकी बाह्य तम्बूरे की तरह कारण-परम्परा नहीं है। असंख्यात प्रदेशरूपी तम्बूरे को पराभाषा के द्वारा आत्मारूपी गवैया बजाता है। ऐसा आत्मा. सुगुरु ने बताया है। उसे जो जानता है वह अपने आत्मा रूपी तम्बूरे के द्वारा परमात्मा का बिना जीभ के पराभाषा के द्वारा भजन करता है ।। ५ ।।। अर्थ-भावार्थ --प्रात्मा के अनुभव में मोह के अभाव में सुषुप्ति दशा नहीं होती। संकल्प-विकल्प के अभाव में स्वप्न एवं जागृत दशा भी नहीं होती, परन्तु जिसमें विकल्पता के शिल्प की विश्रान्ति है, ऐसे अनुभव में चतुर्थ दशा होती है। अनुभव का स्वरूप अनुभवी व्यक्ति ही जान सकते हैं। जो मनुष्य अनुभव-ज्ञान प्राप्त करते हैं वे आत्मा की ज्ञानज्योति का प्रकाश करते हैं और आत्मा के असंख्य प्रदेशरूपी व्यक्ति का ज्ञान से निश्चय करते हैं, तथा श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि वे आनन्द का समूहभूत परमात्म-पद प्राप्त करते हैं ।। ६ ॥ (२६) (राग-बेलावल) ता जोगे चित्त ल्याऊ रे वहाला। . समकित दोरो शील लंगोटी, घुल-घुल गाँठ घुलाऊँ। तत्त्व गुफा में दीपक जोऊँ, चेतन रतन जगाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ।। १ ।। प्रष्ट करम कंडे की धूनी, ध्याना अगन जलाऊँ । उपशम छनने भसम छरणाऊँ, मलि मलि अंग लगाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ।। २ ।। आदि गुरु का चेला होकर मोह के कान फराऊँ। धरम सुकल दोय मुद्रा सोहे, करुणा नाद बजाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ॥ ३ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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