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श्री श्रानन्दघन पदावली - २५३
विवेचन - गोरख आदि योगी इस प्रकार का बाह्य अर्थ करते हैं । सहज योगी ऐसे अमृत की अभिलाषा नहीं करते, परन्तु हठयोगी ऐसा प्रयत्न करते हैं । मनुष्य की देह स्थित गगन - मण्डल का मध्य भाग नाभि है, जहाँ आत्मा के प्राठ रुचक प्रदेश रूपी अमृत का कुआ है । प्रत्येक प्रदेश में अनन्त आनन्द रूपी अमृत का कुआ है । नाभि में जो आठ प्रदेशों के स्थान में गुरुगम लेकर ध्यान लगाता है वह आनन्द रूपी अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है। चौदह राजलोक गगन मण्डल के मध्य
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तिच्छे लोक स्थित है । वहाँ तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती है और उनकी देशना के कारण मनुष्य लोक में श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म रूपी अमृत का कुविद्यमान है । सुगुरु का शिष्य श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म रूपी कुए में से आनन्द रूपी अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है और गुरु-हीन व्यक्ति प्यासा लौटता है ||३॥
अर्थ - भावार्थ-विवेचन - श्री तीर्थंकर भगवान के मुख रूपी गगनमण्डल में वाणी रूपी गाय ब्याई अर्थात् वाणी रूपी गाय का प्रकाश हुआ और वाणी से निकले उपदेश रूपी दूध का जगत् में जमाव हुआ । उस दूध में से विरले ज्ञानयोगियों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अखण्डानन्द रूपी मक्खन को प्राप्त किया। शेष स्वमत, कदाग्रह, क्लेश, वाद-विवाद रूपी खट्टी छाछ से जगत् के लोग भ्रमित हुए ।
विवेचन - दूध-दही का असार अंश छाछ कहलाता है, उस प्रकार भगवान के उपदेश का सार छोड़ कर प्रसार ग्रहण करने वाले अपनी विपरीत बुद्धि के कारण छाछ तुल्य कदाग्रह क्लेश रूपी भाग को ग्रहरण करते हैं । भगवान की वाणी से हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्वों का प्रकाश होता है। नौ तत्त्वों में हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्वों का विवेक करके जो मनुष्य सम्यक्त्व शुद्ध चारित्र रूपी समाधि को ग्रहरण करते हैं वे मक्खन रूपी सारांश ग्रहण करने वाले हैं । श्रोताओं के श्रोत्राकाश रूपी गगनमण्डल में भगवान की वाणी रूपी गाय का प्रसव हुआ और उसके दूध का हृदय रूपी धरती में जमाव हुआ । उपदेश रूपी दूध में से उपादेय सार रूप शुद्ध धर्म रूपी मक्खन को तो कोई विरले प्राप्त कर पाये और शेष असार भाग रूपी छाछ में सम्पूर्ण संसार भ्रमित हुआ है ||४||
अर्थ- भावार्थ-विवेचन - बाह्य तम्बूरे से भगवान के गुण गाये जाते हैं, यह सर्वविदित है । बाह्य तम्बूरे की उत्पत्ति ज्ञात करने से पता लगता है कि सर्वप्रथम तू बे के बीज में से अंकुर प्रस्फुटित होते हैं । उसमें