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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५२ टिप्पणी-पद की भाषा, शैली एवं अभिव्यक्ति से तो शंका रहती है कि यह पद योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी का नहीं है। 'घनानन्द और प्रानन्दधन' के सम्पादक श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे सन्त कबीर का पद माना है। 'कबीर ग्रन्थावली' के पृष्ठ सं. ८४-८५ पर तनिक परिवर्तनयुक्त यही पद है। पद प्रायः मिलता-जुलता है। अतः इस पद को कबीर का ही मानना पड़ेगा। ___ अर्थ-भावार्थः-श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि जो व्यक्ति इस पद . का फैसला करेगा वह अवधत योगी मेरा गुरु है। तरुवर के मूल होनी चाहिए, शाखा होनी चाहिए। शाखा हो तो पत्र एवं फूल आते हैं, फूल हों तो फल आते हैं और वैसे वृक्ष की छाया पड़ती है, परन्तु आत्मा रूप वृक्ष के मूल नहीं है; आत्मा अनादिकाल से है, जिससे उसकी मूल नहीं हो सकती। आत्मा अरूपी है जिससे उसका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। प्रतिबिम्ब तो रूपी का ही पड़ता है। आत्मा अरूपी वृक्ष होने से बाह्य वृक्ष की तरह उसके पत्र, शाखा, फूल आदि का सम्बन्ध नहीं है। प्रात्मा ही कारण एवं कार्य रूप है। आत्मा कर्मों का क्षय करके स्वयं परमात्मपद प्राप्त करता है और वह सिद्धशिला पर एक योजन के चौबीस भाग करें तो चौबीसवें भाग पर परमात्मा बनकर रहता है। आत्मा रूप वृक्ष पर परमात्मा रूप फल एवंभूत नय की अपेक्षा से लगते हैं। आत्मारूप वृक्ष पर अजरामर परमात्मा रूप फल लगते हैं ।। १ ।। अर्थ-भावार्थ-श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि देह रूपी वृक्ष पर अन्तरात्मा एवं मन रूपी दो पक्षी बैठे हुए हैं। अन्तरात्मा गुरु है और मन शिष्य है। अन्तरात्मा मन को उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उसे अपने वश में रखने का प्रयास करता है। वह गुरु-पद के लिए योग्य है परन्तु शिष्य का स्वभाव चंचल है। वह बाह्य जगत् के विषयों में भटकता है और जगत् के पदार्थों को ग्रहण करता है। अन्तरात्मा रूपी गुरु बाह्य विषयों में लक्ष्य नहीं देता। वह स्वयं के गुणों में रमण करता है। वह बाह्य विषयों को चुन-चुन कर खाना पसन्द नहीं करता। वह अपने सहज आनन्द में निरन्तर खेलता रहता है ।।२।। अर्थ-भावार्थ-मुख रूपी गगन-मण्डल के मध्य में एक कुया है। वहाँ एक प्रकार के रस रूपी अमृत का निवास है। जिस शिष्य ने खेचरी मुद्रा का गुरु-गम ज्ञान प्राप्त करके उसकी सिद्धि की है, ऐसा गुरुवाला शिष्य उस अमृत का पान करता है और अपनी प्यास तृप्त करता है। जिसका कोई गुरु नहीं है, वह मनुष्य प्यासा ही लौटता है ।।३।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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