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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२५१ अध्यात्म भाव की महिमा अवर्णनीय है। जो व्यक्ति अध्यात्मभाव का अधिकारी नहीं है वह यदि उसकी निन्दा करे, जिससे उपशम आदि भाव रूप अध्यात्म की कोई हानि नहीं होती। उल्ल यदि सूर्य की निन्दा करे तो सूर्य की कोई हानि होने वाली नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आनन्द के समूहभूत मनुष्यो! परमात्मा का भाव प्रकट करो ॥ ४ ॥ . . ( २५ ) ( राग-प्रासावरी ) अवधू ! सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेड़ा ।। अवधू० ।। तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल लागा। शाखा पत्र नहीं कछु उनकु, अमृत गगने लागा ।। अवधू० ।। १ ।। तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरु एक चेला । चेले ने जुग चुण-चुण खाया, गुरु निरन्तर खेला ।। अवधू० ।। २ ।। गगन मंडल में अधविच कुवा, उहाँ है अमी का वासा । सगुरा होवे सो भर भर पीवे, नगुरा जावे प्यासा ।। अवधू० ।। ३ ॥ गगन मंडल में गउनां बियानी, धरती दूध जमाया। . माखन था सो बिरला पाया, छासे जग भरमाया ।। अवधू० ॥ ४ ॥ थड़ बिनु पत्र, पत्र बिनु तुबा, बिन जीभ्या गुण गाया। गावन वाले का रूप न रेखा, सुगुरु मोही बताया । अवधू० ।। ५ ।। आतम अनुभव बिन नहीं जाने, अन्तरज्योति जगावे । घट अन्तर परखे सोही मूरति, प्रानन्दघन पद पावे ।। अवधू० ।। ६॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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