SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६४ पतित की पुकार ( राग-झिझोरी दादरा ) हरि पतित के उधारन तुम्ह, कैसो पावन नामी। मोसो तुम्ह कब उघार्यो, कूर कुटिल कामी ।। १॥ और पतित केइ उधारे, करनी बिन करता। एक काहू नाम लेहु, झूठे विरद धरता ।। २.।। करणी करि पार भये, बहुत निगम साखी । सोभा दई तुम्ह को नाथ, आपनी पत राखी ।। ३ ।। निपट अगति पापकारी, मोसो अपराधी। जानू जो सुधारि होऽब, नाव लाज साधी ।। ४ ।' और को उपासक हौं, कैसे के , उधारौं । दुविधा यह रावरी न, पावरी विचारौं ।। ५ ।। गई सो गई नाथ, फेरि नई कीजै । द्वारि पर्यो ढींगदास, आपनो करिः लीजै ॥ ६ ।। दास को सुधारि लेहु, बहुत कहा कहीये । 'प्रानन्दघन' परम रीति, नांव को निबहिये ॥ ७ ॥ शब्दार्थः --निगम वेद । विरद=यश । पत=प्रतिष्ठा । पावरी= कुछ तो। ढींगदास=दुष्ट, पापी । नाँव = नाम । निबहिये=पालन कीजिये । यह पद आनन्दघनजी का प्रतीत नहीं होता। यह ब्रज भाषा में है और जैन मान्यता के अनुरूप नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी के किसी भी पद में इस तरह का तनिक भी संकेत नहीं है। यह पद ब्रजभाषा के किसी कवि द्वारा रचित है। कदाचित् यह पद सूरदासजी का भी हो सकता है। यह तो निस्सन्देह बात है कि यह पद योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित नहीं है ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy