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परिशिष्ट - ( १ )
श्रीमद् को प्राप्त सिद्धियाँ तथा उनके चमत्कार
श्रीमद् श्रानन्दघन जो के निकट सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को स्पष्ट प्रभास होता था कि उन्हें अपने ध्यान एवं योग-साधना से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो गई हैं जिनके चमत्कार देखकर लोग दाँतों तले उंगली बाते थे । वे उनके चमत्कारों से अत्यन्त प्रभावित थे ।
स्वमूत्र से स्वर्ण-सिद्धि
उस समय योगिराज पर ध्यान मग्न थे ।
के
पास आया । जब रस- कुप्पिका उनके
श्रीमद् आनन्दघन जी की एक योगों के साथ मित्रता थी । उस योगो ने अनेक प्रयोगों के द्वारा एवं अपने अथक प्रयासों से स्वर्ण-सिद्धि करने के लिए रस-सिद्धि की थी । उसने अपने एक शिष्य के साथ श्रीमद् आनन्दघन जो को. रस-सिद्धि की कुप्पिका भेजी । श्रीमद् प्रानन्दघन जी आबू पर्वत के एक शिखर योगी का वह शिष्य रस- कुप्पिका लेकर श्रीमद् श्रीमद् का ध्यान पूर्ण हुआ तब उस शिष्य ने वह समक्ष प्रस्तुत करके निवेदन किया- "मेरे गुरु ने आपकी मित्रता के कारण यह रस- कुप्पिका भेजी है, कृपा करके ग्रहण करें ।" श्रीमद् ने वह रसकुप्पिका ली और उसे शिला में पटक कर फोड़ दी । यह देखकर उस शिष्य से नहीं रहा गया। उसने कहा, “तू जोगटा रस-सिद्धि को क्या समझे? मेरे गुरु ने कितने श्रम से यह रस तैयार किया था, जिसे तुमने बहा दिया, तू महामूढ़ है, तुझे तनिक भी बुद्धि नहीं है ।" उस शिष्य की बात सुनकर श्रीमद् आनन्दघन जी ने कहा, "तेरे गुरु रस- सिद्धि से क्या आत्म-कल्याण करना चाहते हैं ? " शिष्य बोला, "रस से स्वर्णसिद्धि होती है जिससे संसार को वश में किया जा सकता है ।" श्रीमद् बोले, "रस-सिद्धि कोई बड़ी बात नहीं है । आत्मा के समक्ष रस - सिद्धि का कोई महत्त्व नहीं है ।" उस योगी के शिष्य ने कहा, "आत्मा की बातें करने वाले तो अनेक हैं परन्तु रस-सिद्धि करके बताने वाले तो विरले ही हैं। ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करते हो तो स्वर्ण बना करके बतायो ।” उस शिष्य की बात श्रीमद् आनन्दघन जी को चुभ गई । उन्होंने पत्थर की शिला पर मूत्र किया जिससे वह शिला स्वर्ण की हो गई । वह शिष्य तो देखता ही रह गया । उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह शिष्य