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श्री श्रानन्दघन पदावली - २५७
एवं शुक्ल - ध्यान रूपी दो मुद्राओं को दोनों कानों में धारण करने से दोनों कान सुशोभित हैं । करुणा रूपी श्रृंगनाद करने से समस्त मनुष्यों के हृदय में दया भाव उत्पन्न किया जाता है, करुणा भावना रूपी नाद के द्वारा आत्मा की दया वृत्ति खिल उठती है और परमात्मा के अन्तर में हर्ष प्रकट होता है अर्थात् आत्मा परमात्मा रूप बन जाता है । अतः मैं ऐसी योग की दशा धारण करना चाहता हूँ ।। ३ ।।
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अर्थ - भावार्थ-विवेचन - इस प्रकार योगरूपी सिंहासन पर बैठकर मैं मुक्तिपुरी का ध्यान धरता हूँ । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-योग के आठ अंग गिने जाते हैं । योग रूपी सिंहासन पर बैठकर योग के अंगों का सेवन करने से अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। योग के अंगों का सम्यक् प्रकार से सेवन करने से अट्ठाईस लब्धियों में से अमुक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । पाँचवें आरे में भो कतिपय लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य तथा चौदह सौ चवालीस ग्रन्थों के प्रणेता पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी ने योग के अंगों का सम्यक् रूप से वर्णन किया है । श्री हरिभद्रसूरि ने तो अपने योग-बिन्दु में योग का सुन्दर वर्णन किया है । श्रीमद् चिदानन्द जी ने 'चिदानन्द स्वरोदय' में योग का स्पष्ट वर्णन किया है । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि देवेन्द्र की तरह मैं योग - सिंहासन पर प्रारूढ़ होकर पुनः कलियुग में न आऊँ - ऐसी स्थिति मैं प्राप्त करूँ । वे ऐसी योग - दशा की अभिलाषा रखते हैं ॥। ४ ॥
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(राग - सारंग )
चेतन शुद्धातम कु ध्यावो ।
पर परचे धामधूम सदाई, निज परचे सुख पावो ।
निज घर में प्रभुता है तेरी, पर संग प्रत्यक्ष रीत लखी तुम ऐसी, गहिये
यावत तृष्णा मोह है तुमको, तावत स्व संवेद ग्यान लही करवो, छंडो
नीच
भाप
चेतन० ।। १ ।।
कहावो ।
सुहावो । चेतन० ।। २ ।।
मिथ्या भावो ।
भ्रमक विभावो ।
चेतन० ।। ३ ।।