________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५८
सुमता चेतना पतिकु इण विध, कहे निज घर आवो। प्रातम उच्छ सुधारस पीये, 'सुख प्रानन्द' पद पावो ।
चेतन० ।। ४ ।।
टिप्पणी : इस पद में आनन्दघन जी का नाम तक नहीं है, परन्तु 'पानन्द' शब्द देखकर ही इसे श्रीमद् प्रानन्दघन जी का मान लिया है। पद की अन्तिम पंक्ति में रचयिता का नाम 'सुख प्रानन्द' दिया गया है। श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने अपने किसी भी पद में 'मानन्द' अथवा 'सुख प्रानन्द' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अतः यह प्रानन्दघन जी का प्रतीत नहीं होता। पद में श्रीमद् प्रानन्दघन जी जैसी भाषा और शैली भी नहीं है।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन--श्रीमद् आनन्दघनजी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन! तू अपने शुद्धात्म-पद का ध्यान धर, जिससे कर्म-मलिनता नष्ट होगी। जगत् में ध्यान के समान कोई उत्तम मोक्ष-हेतु नहीं है। ध्याता, ध्यान तथा ध्येय की एकता करने वाले अनन्य चित्त वाले योगी के समस्त दुःखों का क्षय हो जाता है। अतः हे प्रात्मन् ! अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करने में ही तू समस्त प्रकार
की सिद्धि जान। परपुद्गल के परिचय में नित्य राग, द्वेष, प्रमाद, ईर्ष्या, विषय-वासना, क्लेश, दुःख एवं जन्म-मृत्यु की नित्य धाम-धूम रहती है। अतः पर-पुद्गल वस्तु के परिचय से कदापि शान्ति नहीं मिलेगी। अपने शुद्धात्म के सम्बन्ध से तुम सुख प्राप्त कर सकते हो। अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करने से आधि, व्याधि एवं उपाधि की अनेक पीड़ाओं का शमन होता है और अन्तर में सहज शान्ति की अनुभूति होती है। समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध से आत्मा न्यारा है-ऐसी भावना लाने से प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप का आश्रय लेकर सहज सुख प्राप्त करती है। अतः हे चेतन! ऐसी श्रद्धा रखो कि आत्म परिचय करने से तुम सुख प्राप्त करोगे ।। १ ।।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! अपने असंख्यात प्रदेश रूप घर में तुम्हारी प्रभुता है। चेतन के घर में चेतन की प्रभुता है परन्तु जड़वस्तु के सम्बन्ध में चेतन की प्रभुता नहीं है। पर-वस्तु के सम्बन्ध से जो अपनी प्रभुता मानता है वह भ्रान्त है। पर-वस्तु के अहंत्व से रसगारव, ऋद्धि-गारव और शाता-गारव उत्पन्न होते हैं। पर-वस्तु के सम्बन्ध की अहंता से आठ