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________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२५६ प्रकार के अहंकार उत्पन्न होते हैं। पर-जड़ वस्तु के लालच से जीव यत्र-तत्र परिभ्रमण करता है और किसी इष्ट जड़-वस्तु का लाभ होने पर मन में फूल जाता है। धनवान व्यक्ति धन के घमण्ड में फल जाता है, विद्वान् व्यक्ति विद्या के घमण्ड में फल जाता है, कोई व्यक्ति परिवार के घमण्ड से फल जाता है, कोई व्यक्ति लोगों द्वारा मान-सम्मान मिलने से फल जाता है, कोई महात्मा अपने शिष्यों की अधिकता से फल जाता है और कोई किसी वस्तु का लाभ होने पर अभिमान में आ जाता है तथा कोई पर-जड़ वस्तु स्वरूप देह के सौन्दर्य से प्रसन्न होते हैं; परन्तु यह सब भ्रम है। सनत्कुमार चक्रवर्ती को भी रूप के अहंकार से शान्ति प्राप्त नहीं हुई। जड़ वस्तुओं की प्राप्ति से जो व्यक्ति मन में प्रफुल्लित होता है, वह तो ऐसा है जैसे बैलगाड़ी के नीचे कुत्ता चल रहा हो । वह जानता है कि बैलगाड़ी मैं ही चला रहा हूँ। जो महात्मा, शिष्यों अथवा भक्तों की अधिकता से फूला नहीं समाता, वह अज्ञानी है। जो व्यक्ति विषयवासना को प्राप्ति से फलता है, वह कसाई के घर के बकरे के समान है। श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन ! जड़, कर्म तथा देह आदि के कारण तुम्हारी प्रभुता नहीं आंकी जाती, उल्टी नीचता गिनी जाती है। संसारं के लोग जिसमें प्रभुता मानते हैं, जिनवाणो उसमें नीचता मानती है। अतः प्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार जड़ और चेतन की नीचता एवं प्रभुता को समझकर हे चेतन! अपना शुद्ध स्वभाव ग्रहण करना चाहिए। राग-द्वेष को दूर किये बिना कदापि शान्ति एवं परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। राग-द्वेष की अशुद्धता दूर करने पर ही सहज सुख की प्राप्ति होगी। अतः अप्रमत्त होकर आत्मा के स्वभाव को ग्रहण करना चाहिए। हे चेतन! तुम जड़ पदार्थ में, 'मैं' तथा 'मेरा' ऐसा प्रत्यय क्यों सोचते हो ? अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! जब तक तुम्हें तृष्णा एवं मोह है, तब तक चारित्र-नय की अपेक्षा से मिथ्या-भाव ही है। पर के सम्बन्ध की प्राप्ति की तृष्णा जब तक मन में रहती है, तब तक तुम्हें सच्ची शान्ति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। तृष्णा राक्षसी जीवों के भाव प्राण को चूस लेती है। तृष्णा अनेक प्रकार की होती है-धन की तृष्णा, पुत्र की तृष्णा, यश की तृष्णा, सम्मान की तृष्णा, प्रतिष्ठा की तृष्णा, पाँच इन्द्रियों के तेईस विषयों की तृष्णा, देवी भोगों के उपभोग की तृष्णा, परिवार की तृष्णा,
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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