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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६०
घरबार की तृष्णा, मान्य एवं पूजनीय बनने की तृष्णा, सत्ता की तृष्णा, पदवी एवं उपाधि प्राप्त होने की तृष्णा आदि मिथ्यात्व-भाव हैं । . स्व-संवेदन ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा आत्मा के स्वरूप की प्रतीति हो, उस प्रकार का प्रात्मज्ञान प्राप्त करके भ्रामक विभाव का परित्याग करना उचित है और यही प्रमुख कर्त्तव्य है । क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा, भोगेच्छा, ममता के विचार, हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह तथा ईर्ष्या एवं स्वार्थ के विचार आदि समस्त पर भाव हैं । हे चेतन ! यदि एक घड़ी का समय भी परभाव रहित व्यतीत हुआ तो वह समय महोत्सव तुल्य मानना ।। ३ ।।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघन जी के हृदय में बसी समता चेतन को कहती है कि हे चेतनस्वामी ! तुम अपने असंख्यात प्रदेश रूप घर में आओ, परभाव - रमरणता रूपी विषयों का परित्याग करके शुद्ध रमरणता रूपी अमृत रस का पान करो, एक श्वासोच्छ्वास जितना समय भी व्यर्थ मत खोप्रो और सुखदायक परमात्म-पद प्राप्त करो । समता कहती है कि हे चेतन ! तुम ममता का त्याग करके अपने घर में आओ । पर-वस्तु को घोर नींद की तरह भूल जाओ और शुद्ध धर्म के प्रति लक्ष्य रखो ॥ ४ ॥
( २८ )
( राग - सारंग ) विचारो ।
चेतन ऐसा ग्यान
सोहं सोहं सोहं सोहं, सोहं अणु न बीया सारो ।।
चेतन० ॥
निश्चय स्व लक्षरण अवलंबी, प्रज्ञा छैनी निहारो । इह छैनी मध्य पाती दुविधा, करे जड़-चेतन फारो ||
चेतन ०
तस छैनी कर ग्रहिये जो धन, सो सोहं जानि दरो तुम मोहं हं है
तुम सोहं
समको
० ।। २ ।।
धारो ।
वारो ।।
चेतन ०
'०' ।। ३ ।।