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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५६
में लाने को उदीरणा कहते हैं। कर्मों का आत्म-प्रदेशों के साथ पड़ा रहना सत्ता कहलाता है। बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता-इन चार प्रकारों से कर्म-बन्धन होता है। प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, रस-बन्ध और प्रदेश-बन्ध-चार प्रकारों से कर्मों का बन्ध होता है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि जिस प्रकार काष्ठ अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उस प्रकार अष्टकर्म रूपी काष्ठ को ध्यानरूपी अग्नि से जलाकर उसकी धनी निकालता हूँ और उपशम रूपी चलनी से भस्म को छानकर उसे अपने अंगों पर मलता हूँ अर्थात् ऐसी भस्म अंगों पर मल कर अन्तर की योगदशा धारण करता हूँ ।। २ ।।
विवेचन-उपशम भाव रूपी चलनी से कर्म की भस्म सम्यक् प्रकार से छानी जा सकती है। ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी काष्ठ जलकर भस्म हो जाता है। ध्यान के चार भेद हैं -आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल-ध्यान, जिनमें से प्रारम्भ के दो ध्यान त्याग करने योग्य हैं। अतः आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान का परित्याग करके धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को चित्त में, लगाता हूँ और इनसे कर्मों को जलाकर भस्म करता हूँ। अपने मन को मैं एक ध्येय में स्थिर रखता हूँ। मैं राग-द्वेष का परित्याग करके आत्मा का ध्यान धरके अन्तरंगयोग-भूमिका में प्रविष्ट होता हूँ। मैं तत्त्व-गुफा में सिद्ध होने के लिए सिद्धासन लगाकर इस प्रकार योग-मार्ग में लीन होता हूँ ॥ २ ॥
अर्थ-भावार्थ-विवेचन-तीर्थंकर आदिनाथ हैं। वे तीर्थंकर गिने जाते हैं और गुरुओं की परम्परा की अपेक्षा वे गुरु भी गिने जा सकते हैं। उनकी आज्ञा मानकर मैं मोह के कान फड़वाऊँगा अर्थात् मोह का नाश करूंगा। समस्त गुणों की आदि में सम्यक्त्व गुण उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व प्रदान करने वाले गुरु आद्य गुरु गिने जाते हैं। उनकी आज्ञा में रहकर मैं कर्म का नाश करूंगा। समस्त गुणों में सत्य-असत्य का निर्णय करने वाला विवेक गुण उत्पन्न होता है। उक्त विवेक गुण के द्वारा समस्त धर्म-कार्य किये जा सकते हैं। अत: वे भी निश्चय से आद्य गुरु गिने जाते हैं। वैसे योगियों के गुरु आदिनाथ गिने जाते हैं । मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ आदि योगी आदिनाथ को अपने गुरु के रूप में मानते हैं। जैनशास्त्रों में श्री ऋषभदेव को आदिनाथ कहते हैं, योगियों के गुरु आदिनाथ हैं और वे अठारह दोषों से रहित आदिनाथ श्री ऋषभदेव स्वामी हैं। अतः वे भी पूर्वोक्त अपेक्षा से गुरु हैं। मैं उनका आज्ञाकारी शिष्य बनकर मोह-महामल्ल के कान फाडगा। धर्म-ध्यान