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श्री आनन्दघन पदावली-२४१
टिप्पणी-पद की भाषा-शैली श्रीमद् प्रानन्दघन जी के अनुरूप नहीं है तथा काशी करवत लेने का उल्लेख जैन दर्शन के अनुकूल नहीं है। अतः यह पद श्री प्रानन्दघन जी का नहीं है।
अर्थ एवं विवेचन-समता का पति आत्मा है। आत्मा को भ्रमर के संकेत से समता बुलाती है। समता अपने आत्मा रूप भ्रमर को कहती है कि भ्रमर की तरह पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय रूप पुष्पों के विषय-रस को ग्रहण करने वाले हे आत्मन् ! तू उदास क्यों है ? आत्मा रूप भ्रमर की दशा देखकर समता कहती है कि तू किस गुण से उदास बना है ? कर्मयुक्त प्रात्मा रूप भ्रमर के राग-द्वेष रूप दो पंख काले हैं और पदार्थों का भोग रूप मुंह पीला है। वह सांसारिक विषयों रूपी पुष्पों में निवास करके पुष्पों का निवासी बना है ॥१॥
___समता अपने आत्मा रूप भ्रमर को कहती है कि तूने विषय रूप पुष्पों की समस्त कलियों का रसपान किया है और अब निराश होकर क्यों जा रहा है ? वह कहती है कि तुम सुख की आशा का त्याग करके क्यों जाते हो? तुम बाह्य विषय रूप पुष्पों के रस-भोग से निराश हुए हो तो निराश होकर मत बैठो, मेरे पास आयो और अनुभव रस का पान करो, जिससे तुम्हारे अन्तर में आनन्द का महासागर प्रकट होगा ॥२॥
.. समता अपने स्वामी को कहती है कि हे आत्म प्रभो! आपसे मिलने के समस्त उपाय मैंने कर लिये। अब मेरा मन नहीं मानता। हे प्रानन्दघनभूत आत्म प्रभो ! अब आपको मिलने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इतने उपाय करने पर भी यदि आप नहीं मिलो तो अब तो मैं आपको मिलने के लिए काशी जाकर करवत लेकर अन्य भव में प्रत्यक्ष रूप से मिलने का संकल्प करूंगी। यही केवल अन्तिम उपाय है । अतः आप अब मुझे शीघ्र मिलो ।।३।।
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राग-सारंग (प्रासावरी ) ... अब हम अमर भये न मरेंगे। या कारण मिथ्यात दियो तज, क्यू कर देह धरेंगे ।।
अब० ।। १॥