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श्री आनन्दघन पदावली-१७६
विवेचन-संसार में परिभ्रमण करती हुई भव्य आत्मा मनुष्यजन्म पाकर अपना आत्म-स्वरूप प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करता हुमा गुणस्थानों का प्रारोहण करता है। दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान में जाकर मोहप्रकृतियों का क्षय करके तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है तो लोक एवं अलोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा अनन्त सुखों का स्वामी बन जाता है।
(राग-जैजैवन्ती त्रिताला) मेरे प्राण प्रानन्दघन, तान प्रानन्दधन ।। मात आनन्दघन, तात आनन्दघन । गात अानन्दघन, जात प्रानन्दघन ।। मेरे० ।। १ ।। राज अानन्दघन, काज आनन्दघन । साज प्रानन्दघन, लाभ प्रानन्दघन ।। मेरे० ।। २ ।।
प्राभ प्रानन्दघन, गाभ प्रानन्दघन । ..नाभ प्रानन्दघन, लाभ प्रानन्दघन ।। मेरे० ॥ ३ ॥
अर्थ-श्रीमद अानन्दघन जी कहते हैं कि हे प्रभो! मेरे प्राण आनन्दघन हैं। · मेरी तान भी आनन्दघन ही है । हे प्रभो! मुझे आत्म-भाव आपने ही प्रदान किये हैं। इस कारण आप मेरे माता-पिता हैं। मेरी देह भी आप ही हैं और जाति-पाँति तथा पुत्र भी आप हैं। हे आनन्दघन ! मुझे तो केवल आपका ही सहारा है, अतः मुझे भविष्य की तनिक भी चिन्ता नहीं है ।। १ ।। - विवेचन --योगिराज श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि संसार में मुझे कोई भी वस्तु अपनी प्रतीत नहीं होती। अब तो केवल आनन्द का समूहभूत एक प्रात्मा ही प्रिय लगता है। प्रानन्दघन आत्मा ही अब मेरा प्राण है। पाँच इन्द्रियों, तीन बल तथा श्वासोश्वास एवं आयुष्यइन दस प्राणों के द्वारा जीव जगत् में जीवित हैं, परन्तु ये दस प्राण क्षणिक हैं। अतः ये सच्चे प्राण नहीं हैं। सच्चा प्राणभूत तो मेरा आनन्द का समूहभूत प्रात्मा है। आज पर्यन्त मैं बाह्य-तान में प्रेम रखता था, परन्तु अब तो भाव-तान आनन्दघन आत्मा ही है। अब