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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७८ विवेचन-जब आत्म-शुद्धि के लिए वातावरण बन गया उस समय चेतन का विभावावस्था को त्याग कर स्वभावावस्था में न आना यौवन के स्वामी वियोग के समान है। समता अपनी सखी सुमति को कहती है कि शुद्ध चेतन स्वामी की प्राप्ति के बिना मेरा यौवन निष्फल गया। इस प्रकार क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ समता अपनी सखी सुमति को कहती है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ समता का पूर्ण यौवन माना जाता है, परन्तु तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थानक में गये बिना परम शुद्ध चेतनस्वामी का संयोग नहीं होता, इस कारण क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ समता इस प्रकार के उद्गार निकालती है ॥ साखी ।। अर्थ -मैं न्योछावर होती हूँ कि छोटी बहू ने मन को प्रसन्न करने वाला अत्यन्त ही सुन्दर कार्य किया है जो चेतनस्वामी के पेट में छिपी रहकर और मस्तक को आच्छादित करके स्वामी को विभावदशा में चारों गतियों में घुमाती थी और स्वामी की गोद में बैठकर मधुर वचन बोलती थी मानों अनुभव रूपी अमृत का पान किया हो। इस प्रकार वह उन्हें सब्जबाग दिखाती थी कि सांसारिक सुख-सुविधाओं के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। जिसने गुप्त रूप से छल-छिद्र करके स्वामी का सम्पूर्ण मन बींध लिया था अर्थात् अपने वशीभूत कर रखा था उसे मेरी वैरिन ममता ने मेरे स्वामी को परमात्म गुणों को दे दिया ॥ १ व २ ॥ विवेचन–ममता के कारण पाप में प्रवृत्ति होती है। ममता के द्वारा आत्मा भ्रान्त बनकर अनन्त दुःख में उतरती है। समस्त जीवों को दुःख के खड्ड में उतारने वाली ममता है। ममता का ऐसा व्यवहार देखकर समता ने उसका नाश करने के लिए उसके पेट में प्रवेश किया और दसवें गुणस्थानक के अन्त में ममता का पूर्णत: नाश किया। समता के बिना वचनों में मधुरता नहीं आती। समता अपने शुद्ध चेतनस्वामी के सद्गुणों में विश्राम पाकर अपने स्वामी के रूप में तल्लीन हो गई और असंख्यातप्रदेश में उतर कर उसने वहाँ अनुभव-अमृत का पान किया। अर्थ-मोह-ममता से स्वामी का साथ छटने पर चेतन समतामय बन गया। परिणामस्वरूप लोकालोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान रूप पुत्र का जन्म हुआ। इस प्रकार समस्त कार्य सिद्ध हो गये और स्वामी ने आनन्दघन पद प्राप्त कर लिया ॥३॥ .
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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