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श्री आनन्दघन पदावली-३५५
मोह दसा धरि भावना रे वाल्हा, चित्त लहे तत्त्व विचार ।
मनरा० । वीतरागता प्रादरी रे वाल्हा, प्राणनाथ निरधार ।
मनरा० ।।१४।। सेवक पण ते प्रादरे रे वाल्हा, तो रहे सेवक माम ।
मनरा० । प्रासय साथे चालिये रे वाल्हा, एहिज रूडो काम ।
मनरा० ।।१५।। त्रिविध जोग धरी आदर्यो रे वाल्हा, नेमिनाथ भरतार ।
मनरा० । धारण पोखण तारणो रे वाल्हा, नवरस मुगता हार ।
मनरा० ।।१६।। कारण रूपी प्रभु भज्यो रे वाल्हा, गिण्यो न काज-काज ।
मनरा० । क्रिपा करी मुझ दीजिये रे वाल्हा, 'आनन्दघन' पद राज ।
मनरा० ।।१७।।
शब्दार्थ--- भवान्तर पूर्व जन्म । वाल्ही=प्रिय । पखे पक्ष में । नेहलो स्नेह । ईसर=महादेव । अरघंग=प्राधे अंग में। छेदियो=काट डाला। किसडी= कैसी । वधसी=बढ़ेगी। निरवाहे=निभाना । निसंपति=सगाई, सम्बन्ध । पोख=पोषण। सामलो- साँवरे श्याम । दोख=दोष। लखण=लक्षण से। सेत= श्वेत । दाखवो बताना । माग=मार्ग । गुह्य=गुप्त । सगलो- सब । अनेकांतिक=अनेकान्त स्याद्वाद बुद्धि । गतरोग रोग रहित । जोणी योनि, जन्म । सीझे= सिद्ध होवे । माम=मर्म। रूडो=श्रेष्ठ ।
(सन्दर्भ-श्री नेमिनाथ महाराजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ विवाह करने के लिए बारात लेकर आये थे। मार्ग में उन्होंने अनेक पशुओं को एक बाड़े में बन्द देखा। वे चिल्ला रहे थे। श्री नेमिनाथ भगवान को जब यह ज्ञात हुआ कि इन समस्त पशुओं का मेरे विवाह के