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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ४१० श्रीमद् को अध्यात्म-ज्ञान विषयक तीव्र रुचि थी। वे गुरण - विहीन नाम मात्र के ज्ञानियों को अध्यात्म ज्ञानियों की श्रेणी में नहीं गिनते थे । 'श्रातमज्ञानी श्रमण कहावे, बोजा तो द्रव्यलगी रे - इस प्रकार के उद्गारों से ज्ञात होता है कि जो साधु अध्यात्म ज्ञान का तिरस्कार करते हैं उन्हें श्रीमद् द्रव्यलिंगी कहकर उपालम्भ देते हैं और उन्हें उद्बोधन देते हैं कि वे अध्यात्म ज्ञान की ओर प्रवृत्त हों । श्रीमद् श्रानन्दघनजी की आन्तरिक दशा स्वच्छ एवं परमात्म-प्रेम से अनुरंजित थी । वे आत्मा के शुद्ध धर्म में मस्त रहते थे । आत्मध्यान तथा आत्मानुभव रसास्वादन में वे एकाग्रतापूर्वक तल्लीन रहते थे । इस सम्बन्ध में श्री अरनाथ भगवान के स्तवन में उनके निम्न उद्गार प्रकट हुए हैं :-- दर्शन ज्ञान चरण थकी, अलख सरूप निर्विकल्प रस पीजिये, पीजिये, शुद्ध निरंजन परमारथ पंथ जे कहे, ते रंजे व्यवहारे लख जे रहें, तेहना भेद एक अनेक रे एक रे । धरम० ।। ५ तंत रे । अनन्त रे । धरम० ।। ६ । व्यवहारे लखे दोहिला, कांइ न आवे हाथ रे । शुद्ध नय थापना सेवतां, नवी रहे दुविधा साथ रे । धरम० ।। ७ ।। इन उद्गारों से ज्ञात होता है कि श्रीमद् की शुद्ध निश्चय नय कथित आत्मा के शुद्ध धर्म में अत्यन्त रुचि थी । वे ज्ञान की उत्तम दशा को पहुँचे हुए होने से आत्मा के शुद्ध धर्म में ही रहते थे, उसी में मस्त धुन रहते थे ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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