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श्री आनन्दघन पदावली-४०६
तुज मुज अंतर अंतर भांजशे रे, वाजशे मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधशे रे, प्रानन्दघन रसपूर ॥ ६ ॥
(पद्मप्रभ स्तवन) मुज मन तुज पद पंकजे रे, लीनो गुणमकरन्द । रंक गणे मंदिर धरा रे, इंद चंद नागिंद ।
विमल० दीठा० ।। ३ ।। साहिब समरथ तु धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी वालहो रे, आतमचो प्राधार ।
. विमल० दीठा० ।। ४ ।। एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिये रे, आनन्दघन पद सेव ।
. . विमल० दीठा० ।। ५ ।।
(विमलनाथ स्तवन) इस प्रकार के उद्गारों से ज्ञात होता है कि श्रीमद् को प्रभु के प्रति कितनी भक्ति थी। प्रभु के साथ एक होने का श्रीमद् का भाव अपूर्व था जो पद्मप्रभु के स्तवन में ज्ञात होता है। उनके हृदय के उद्गारों में उनकी आध्यात्मिक दशा एवं भक्ति झलकती है। चौबीसी में श्रीमद् ने तीर्थंकरों के गुणों की वास्तविक स्तुति की है। परमात्मा के समक्ष अपने दोष प्रकट करके उनसे क्षमायाचना करना स्वदोष प्रकटीकरण स्तवना कहलाती है। चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ का स्तवन उपदेशमय स्तवन है। श्री श्रेयांसनाथ के स्तवन में अध्यात्म का समावेश किया गया है। श्री कुन्थुनाथ के स्तवन में मन सम्बन्धी विचार प्रदर्शित करके उनकी स्तवना की गई है। शास्त्रों में उल्लिखित दर्शन-भेद एवं हेतु नयों के द्वारा श्री मुनिसुव्रत स्वामी एवं श्री नमिनाथ की स्तवना की गई है। राजीमती के प्रेम-शिक्षा-उपालम्भ-गभित स्तवना श्रीमद् ने भगवान श्री नेमिनाथ की की है। सामान्यतया कहा जाये तो उन्होंने तीर्थंकरों की वास्तविक स्तुति करने का स्वाभाविक प्रयत्न किया है। श्रीमद् के स्तवनों में वास्तविक स्तुति स्वरूप अमृत-निर्भर बहते रहते हैं। श्रीमद् द्वारा रचित पदों में आत्मगुणों की प्राप्ति हेतु आध्यात्मिक भाव को प्रमुखता दी गई है।