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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०८
'ब्रजनाथ से सुनाथ विरण, हाथोहाथ बिकायो' पद में ब्रजनाथ की स्तुति की गई है। श्री जिनेश्वर भगवान ही वास्तविक ब्रजनाथ हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी ब्रज और काशी की ओर गये प्रतीत होते हैं। उन्होंने वहाँ ब्रजनाथ को देख कर वास्तविक ब्रजनाथ श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति की हो, ऐसा प्रतीत होता है। श्री हेमचन्द्राचार्य एवं श्री मानतुगाचार्य की तरह श्रीमद् आनन्दघनजी ने ब्रजनाथ के नाम से श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति की है।
. 'साधु संगति बिनु कैसे पैये, परम महारस धाम री' पद में साधुओं की संगति से सहजानन्द की प्राप्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है । साधु-संगति सर्वोत्तम है। साधुओं की संगति से मोक्ष प्राप्त होता है। पंचम काल में आत्मज्ञानी साधुत्रों की संगति ही भव-सागर तरने का एकमात्र उपाय है। श्रीमद् के विचार में सन्तों की सेवा किये बिना तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। साधु-संगति विषयक श्रीमद् के उद्गार प्रशंसनीय, मननीय एवं आदरणीय हैं।
साधुओं की संगति से श्रीमद् आनन्दघनजी को आत्मज्ञान का लाभ प्राप्त हुआ है, यह उनके उद्गारों से स्पष्ट होता है
श्रीमद् अन्तरात्मा से परमात्मा की स्तुति करते थे। उन्होंने श्री संभवनाथ के स्तवन में अभय, अद्वेष एवं अखेद तीन प्रमुख उपाय बताये हैं। भय, खेद एवं द्वेष करने वाला व्यक्ति श्री जिनेश्वर की सेवा के मार्ग में कदम नहीं रख सकता। तलवार की धार पर नृत्य करना सरल है परन्तु परमात्मा की सेवा करना दुष्कर है दुर्लभ है.। योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी ने परमात्मा की स्तवना में निम्नलिखित उद्गार प्रकट किये हैं
काललब्धि लही पंथ निहालशुरे, ए प्राशा अविलम्ब ।। ए जन जोवे रे जिनजी जाणजो रे, आनन्दघन मत अंब ।। ६ ॥
(अजितनाथ स्तवन)
मुग्ध सुगम करो सेवन प्रादरे रे, सेवन अगन अनूप । . देजो कदाचित सेवक याचना रे, आनन्दघन रसरूप ।। ६ ।।
(संभवनाथ स्तवन)