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जीवन-झांकी-७
की आज्ञानुसार साधु-धर्म का पालन करता हूँ। मैं आप जैसे दुराग्रही व्यक्तियों के प्रतिबन्ध से अपना चारित्र खूटी पर नहीं टाँग सकता।" सेठ बार-बार कहते रहे कि मेरे उपाश्रय में तो मेरे कथनानुसार ही व्याख्यान प्रारम्भ होगा, अन्यथा आपको इस उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। श्रीमद् आनन्दघनजी को सेठ के ऊटपटांग शब्द चुभ गये, अतः वे रजोहरण, मुहपत्ति, चोलपट्ट, तर्पनी, पात्र आदि अल्प उपधि रख कर गाँव-गाँव विहार करने लगे और रात्रि के समय गाँव के बाहर श्मसान में अथवा किसी शून्य यक्ष-मन्दिर आदि में पड़े रहते। कहीं स्थान नहीं मिलता तो किसी फक्कड़ को मढ़ी में ही एकान्त में पड़े रहते । वे अपने मन में किसी निन्दक के प्रति न तो द्वष रखते थे और न किसी वन्दक के प्रति रांग रखते थे।
वे एकलविहारी के रूप में विचरण करते रहे। कुछ लोग कहते थे कि वे साधु-वेष छोड़ कर घूमते थे, परन्तु यह बात असत्य है। कहीं भी ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि उन्होंने साधु-वेष का त्याग कर दिया. हो। कई महात्माओं का कथन है कि वे साधु-वेष में ही विचरते थे। पंन्यास श्री दयाविमलजी वयोवृद्ध थे। उन्होंने भी बताया था कि वे गाँव के बाहर गुफाओं में अधिक रहते थे, परन्तु रहते थे साधु-वेष में ही। उनके रोम-रोम में जैनधर्म के प्रति अंटूट श्रद्धा थी। एक बार तपागच्छ के श्री विजयप्रभ सूरि विहार करते-करते मेड़ता के समीप एक गाँव में अानन्दघनजी से मिले। आनन्दघनजी ने उनको वन्दन किया। विजयप्रभसूरि ने श्रीमद् प्रानन्दघनजी को एक वस्त्र प्रोढ़ा कर कहा, "आप अपने प्रात्म-ध्यान में नित्य प्रवृत्त रहें।" श्री विजयप्रभसूरि श्री आनन्दघनजी की सरलता, त्याग एवं वैराग्य-दशा देखकर अंत्यन्त प्रसन्न हुए। श्री प्रानन्दघनजी ने पंच महाव्रतों की आराधना करने के लिए दीक्षा ग्रहण की थी और मृत्यु पर्यन्त वे साधु वेष में रहे। वे नित्य जैन धर्म की पाराधना करने में तत्पर रहते थे और सात नय, सप्तभंगी, चार निक्षेप एवं नौ तत्त्वों के विशिष्ट ज्ञाता थे।
प्रानन्दघन के रूप में ख्याति और उनका अध्यात्म-ज्ञान :
.. उनका दोक्षा नाम तो लाभानन्दजी था, परन्तु जब उनकी. आत्मदशा में वृद्धि होने लगी और वे आत्मानन्द में तन्मय रहने लगे तब लोग उन्हें प्रानन्दघन कहने लगे। फिर तो वे स्वयं भी अपना नाम आनन्दघन ही बताने लगे। जब उनके पास मनुष्य आते तब वे उन्हें