________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६
लगी, त्यों-त्यों अध्यात्मज्ञान की मादकता उन पर छाने लगी। उनका हृदय अध्यात्म-ज्ञान से सराबोर हो गया। वे विचार करने लगे कि आगमों में श्रुतज्ञान की ज्योति की स्पष्ट झलक है, फिर जगत् के लोग आगमों की उपासना के द्वारा ज्ञान-ज्योति क्यों नहीं प्राप्त करते ?
स्पृहा-त्याग एवं ध्यान-मग्नता :
ज्यों-ज्यों अानन्दघनजी में ज्ञान की अभिवृद्धि होती गई, त्यों-त्यों वे गृहस्थ की स्पृहा से दूर रहने लगे। वे नहीं चाहते थे कि उनके संयमजीवन पर कोई दोष लगे। वे अपनी क्रियाओं को नियमित करते थे। वे आवश्यक क्रिया करने के पश्चात् शास्त्र-पठन, मनन, स्मरण एवं पृच्छा आदि में अपना समय व्यतीत करते। पंचाचार पालने के सम्बन्ध में उनकी दृढ़ श्रद्धा थी। वे गुरु के पूर्ण अनुशासन में रहते थे। अपना अधिकतम समय वे ध्यान में व्यतीत करते थे। वे अपनी आत्मा का ध्यान करते और इस प्रकार प्रतिदिन वैराग्य-ध्यान-दशा में वृद्धि होने लगी।
व्याख्यान पर प्रतिबन्ध नहीं : .
___ एक बार वे गुजरात के किसी शहर में पर्युषण का व्याख्यान दे रहे थे। उस शहर में नियम था कि सेठ के आने के पश्चात् ही व्याख्यान प्रारम्भ होता था। श्रोताओं की भीड़ लग गई हो तो भी सेठ के आगमन की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। श्रीमद् अानन्दघनजी ने कल्पसूत्र का प्रवचन प्रारम्भ किया तो सेठ की माता बोली-"मेरा पुत्र न पाये तब तक प्रवचन प्रारम्भ नहीं होगा।" सेठ को बुलाने के लिए व्यक्ति को भेजा, पर वे आने में विलम्ब करते रहे। इस पर आनन्दघनजी ने विचार किया कि श्रावकों के प्रतिबन्ध के कारण आगमों से विरुद्ध चलना उचित नहीं है। वे सोचने लगे - "माता-पिता आदि के प्रतिबन्ध से छूट कर आत्म-कल्याणार्थ मैं दीक्षित हुआ और यहाँ पाकर आगमों की आज्ञा के विरुद्ध गृहस्थों की सुविधा का ध्यान रखना शास्त्रविरुद्ध है। सेठ को बुरा लगे तो लगे और वह चाहे वसति-दान न दे, अपना उपाश्रय संभाल कर रखे, मैं तो आगमों की आज्ञानुसार ही कार्य करूंगा।" ऐसा दृढ़ संकल्प करके उन्होंने कल्पसूत्र का पठन प्रारम्भ कर दिया।
- सेठ अत्यन्त क्रोधित हुए। वे कहने लगे—“आपने प्रवचन प्रारम्भ करके ठीक नहीं किया।" श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा, "मैं तो आगमों