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जीवन-झाँकी-५
निश्चित हो गया कि श्री आनन्दघनजी का स्वर्गवास वि. संवत् १७३१ में ही हुआ था। श्री प्रानन्दघनजी का गच्छ-निर्णय :
- यों तो वे गच्छातीत थे परन्तु वे सचमुच खरतरगच्छ के थे। उनका उपाश्रय मेड़ता में खरतरगच्छ संघ के ही अधीन था तथा लाभानन्द नाम रखने की परम्परा खरतरगच्छ में ही रही है। एक लिखित उल्लेख
और भी प्राप्त हना है कि खरतरगच्छीय पं० सुगुणचन्द्र उस समय लाभानन्दजी के पास अष्टसहस्रो ग्रन्थ पढ़ रहे थे। उस काल में मुनिगण प्रायः अपने ही गच्छ के विद्वानों से अध्ययन करते थे । अतः प्रानन्दघनजी मूलतः खरतरगच्छ के ही सिद्ध होते हैं। उनका मिलन केवल तपागच्छीय उपाध्याय यशोविजयजी से हुआ था, उस आधार पर आनन्दघनजी को तपागच्छीय मानना न्यायसंगत नहीं है ।
उपाध्याय यशोविजयजी के अतिरिक्त श्री विनयविजयजी उपाध्याय, श्री मानविजयजी उपाध्याय, श्री लावण्यविजय गणि, श्री विजयदेवसूरि, श्री विजयप्रभसूरि, श्री ज्ञानविमलसूरि, श्री सत्यविजय जी पंन्यास, श्री विजयरत्नसूरि, श्री जिनहर्षगणि, श्री राजसागरसूरि, श्री सकलचंदजी उपाध्याय, श्री विजयसिंहसूरि आदि मुनिवर योगिराज श्री आनन्दघनजी के समकालीन थे। इनका अनेक गच्छों के साधुओं से परिचय हया था। इन्होंने आगमों का अध्ययन करने के साथ तर्कशास्त्र एवं अलंकारशास्त्र में दक्षता प्राप्त की थी। पूर्व भव के संस्कारों के कारण इनका झुकाव अध्यात्म की अोर हुमा जहाँ इनकी आत्मा को परितृप्ति मिली। ये गच्छों के झगड़ों से तंग आ गये थे, अतः अध्यात्म की ओर इनकी रुचि बढ़ गई।
वैराग्य-वृत्ति एवं शास्त्र-दृष्टि :
उनके अन्तर में विचार उठने लगे कि कर्म के साथ प्रात्मा का प्रनादि काल से संयोग है तो अब शीघ्रातिशीघ्र संसार से मुक्त कैसे हो सकते हैं ? साधुजीवन में तो आत्मिक गुणों की साधना की जानी चाहिए। यदि साधू-जीवन में भी झंझटों में, प्रपंचों में उलझे रहे तो आत्मा के शुद्ध धर्म की साधना कैसे होगी? इस प्रकार की वैराग्य-भावना में वे बहने लगे। वे आत्मार्थी मुनियों से सम्पर्क करने लगे। व्यर्थ की चर्चाओं, विकथाओं, वितंडावादों तथा गृहस्थों के अधिक परिचय से वे दूर रहने लगे। अध्यात्म ज्ञान के शास्त्रों में ज्यों-ज्यों उनकी रुचि बढ़ने