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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-४
षष्ठ पद (राग - कानड़ो, ताल रूपक)
आनन्द की गति श्रानन्द जारणे ।
वाही सुख सहज अचल अलख पद वा सुख 'सुजस' बखाने ॥ १ ॥ सुजस विलास जब प्रकटे श्रानन्द रस, श्रानन्द अक्षय खजाने । ऐसी दशा जब प्रकटे चित श्रन्तर, सो ही श्रानन्दघन पिछाने ॥ २ ॥
सप्तम पद
एरी आज आनन्द भयो मेरे, तेरो मुख निरख निरख । रोम रोम सीतल भयो अंग अंग ॥ एरी ॥ सुद्ध समझरण समता रस भीलत, श्रानन्दघन भयो अनन्त रंग ॥ १ ॥ ऐसी प्रानन्द दशा प्रकटी चित श्रन्तर ताको प्रभाव चलत निरमल गंग । बा ही गंग समता दोउ मिल रहे, 'जसविजय' सीतलता के संग ॥ २ ॥
अष्टम पद
आनंदघन के संग सुजस ही मिले जब, तब श्रानंद सम भयो 'सुजस' । पारस संग लोहा जे फरसत, कंचन होत ही ताके कस ॥ १ ॥ खीर नीर जो मिल रहे 'श्रानंद' 'जस' सुमति सखी के संग, भयो है एक रस । भव खपाइ 'सुजस' विलास भयो, सिद्ध स्वरूप लिये घसमस ॥ २ ॥
अष्टपदी से आनन्दघनजी के जीवन की एक झलक प्राप्त होती है । प्रथम बात तो यह है कि जिस समय उपाध्याय यशोविजयजी उनसे मिले, उस समय प्रानन्दघनजी अपनी उत्कृष्ट साधना में लीन थे और वे एकान्तवास में थे । वे तत्कालीन जैन साधुनों को गच्छभेद, कदाग्रह और पंथों के झगड़ों में फँसे हुए देखकर अत्यन्त खिन्न थे ।
श्रीमद् श्रानन्दघनजी का जन्म वि. संवत् १६६० के आसपास तथा स्वर्गवास वि. संवत् १७३० मानने का कारण यह है कि उपाध्याय श्री यशोविजयजी का स्वर्गवास वि संवत् १७४५ में बड़ौदा ( वड़ोदरा ) के समीप डभोई में हुआ था । इस आधार पर श्री यशोविजयजी का जन्म वि. संवत् १६७० के आसपास माना गया है। श्री यशोविजयजी से श्री प्रानन्दघनजी ज्येष्ठ थे, अतः इनका जन्म संवत् १६६० के आसपास माना गया है । तदुपरान्त श्री प्राणलालजी महाराज के जीवनचरित्र में उल्लेख है कि वे वि. संवत् १७३१ में मेड़ता गये तब वहाँ श्री लाभानन्दजी अर्थात् श्रानन्दघनजी से उनकी मुलाकात हुई थी और उसी वर्ष में अर्थात् वि. संवत् १७३१ में ही उनका स्वर्गवास हुआ था । इससे यह