________________
जीवन-झाँकी-३
इनकी प्रायु के सम्बन्ध में विचार करते हुए विद्वानों ने लिखा है कि ये उपाध्याय श्री यशोविजयजी के समकालीन थे और उपाध्यायजी का इनसे मिलन हुआ था। उपाध्यायजी इनसे आयु में कुछ छोटे थे। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने इनकी स्तुति में एक अष्टपदी की रचना भी की थी जो इस प्रकार है
. प्रथम पद (राग कानड़ा) मारग चलत चलत जात, प्रानन्दघन प्यारे रहत प्रानन्द भरपूर । ताको सरूप भूप त्रिह लोक ते न्यारो वरषत मुख पर नर ॥१॥ सुमति सखी के संग नितनित दोरत कबहुँ न होत ही दूर । 'जसविजय' कहे सुनो प्रानंदघन! हम तुम मिले हजर ॥२॥
द्वितीय पद प्रानंदघन को आनंद सुजश हो गावत रहत प्रानंद सुमता संग। सुमति सखी और नवल आनंदघन मिल रहे गंग-तरंग ॥१॥ मन मंजन करके निर्मल कियो है चित्त, तापर लगायो है अविहड रंग। 'जसविजय' कहे सुनत ही देखो, सुख पायो भोत अभंग ॥२॥
- तृतीय पद (राग-नायकी, चम्पक ताल) प्रानंद कोउ नहीं पावे, 'जोइ पावे सोई प्रानंदघन ध्यावे । प्रानंद कौन रूप कौन प्रानंदघन, प्रानन्द गुरण कौन लखावे ॥१॥ सहज सन्तोष प्रानन्द गुरण प्रकटत, सब दुविधा मिट जावे । 'जस' कहे सो हो प्रानन्दघन पावत, अन्तर ज्योति जगावे ॥२॥
चतुर्थ पद प्रानंद ठोर ठोर नहीं पाया, आनन्द प्रानन्द में समाया। रति अरति दोउ सङ्ग लिये, वरजित प्ररथ ने हाथ तपाया ॥१॥ कोउ प्रानन्दघन छिद्रहि पेखत, जसराश सङ्ग चढ़ि पाया। प्रानन्दघन प्रानन्दरस झोलत, देखत हो 'जस' गुण गाया ॥२॥
पंचम पद (राग नायकी) प्रानन्द कोऊ हम दिखलावो। कह ढूढत तू मूरख पंछी, प्रानन्द हाट न बिकावो॥१॥ ऐसी दसा प्रानन्द सम प्रकटत, ता सुख अलख लखावो। नोइ पावे सोड कछु न कहावत, 'सुजस' गावत ताको वधावो ॥२॥