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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४
अति अचेत कछु चेतत नाही, पकरी टेक हारिल लकरी। आइ अचानक काल तोपची, गहेगो ज्यू नाहर बकरी
॥ जीउ० ।। २ ।। सुपन राज साच करी माचत, राचत छांह गगन बदरी। आनन्दघन हीरो जन छारै, नर मोह्यो माया कँकरो
। जीउ० ।। ३ ।। अर्थ-मोह-दृष्टि से देखने वाला जीव यह जामता है कि आज की घड़ी मेरी सफल है। धन-यौवन पाकर मानव अपना जन्म सफल समझने लगता है। वह गर्भावस्था की समस्त वेदना भूल कर स्त्री, पुत्र, धन एवं यौवन में मग्न रहता है, मन में प्रसन्न होता है और मानता है कि मैं कितना सुखी हूँ ?
हे भोले मानव ! यह तेरी कितनी अज्ञान दशा है। तू अत्यन्त असावधान है। तनिक भी सचेत नहीं होता। तूने तो हारिल पक्षी की लकड़ी पकड़ने की हठ के समान मोह-माया में रचे-पचे रहने की टेक पकड़ ली है। यदि इतने में काल-तोपची पा गया तो जैसे-सिंह बकरी को पकड़ लेता है, वैसे तुझे धर दबायेगा। फिर तेरा कोई जोर नहीं चलेगा। अतः हे मानव ! तू संसार में अपनी घड़ी सफल मानने की भूल मत कर।
हे मूढ़मति ! तू स्वप्न में प्राप्त हुए राज्य को सत्य समझ कर उसी में मग्न हो रहा है। अरें भोले जीव ! तू तो आकाश में छाई हुई बदली की छाया में ही प्रसन्न हो रहा है। क्या तू यह नहीं जानता कि बदली हट जाने पर तुझे पुनः सूर्य की प्रचण्ड गर्मी सहन करनी पड़ेगी ? अतः तू इस मनुष्य-जन्म को व्यर्थ मत गँवा। तुझे पूर्व पुण्य के कारण जो धन, यौवन, कुलीन सुलक्षणी पत्नी, प्राज्ञाकारी पुत्र प्रादि का योग मिला है, उसमें मत फूल। आनन्दघनजी कहते हैं कि मनुष्य प्रात्म-रूप हीरा छोड़ कर माया रूप कंकरी में मुग्ध हो गया है। कितना आश्चर्य है कि परमानन्द स्वरूप शाश्वत-सुख रूपी हीरे को छोड़कर मानव कंकड़पत्थर रूपी माया में मस्त हो रहा है। माया में लुब्ध ऐसे मानव को श्रीमद् आनन्दघनजी वैराग्य-भाव की ओर उन्मुख करते हुए कहते हैं कि परमानन्द स्वरूप हीरा त्याग कर मोह-माया रूपी कंकड़-पत्थर पर मोहित हो रहा है। यह ठीक नहीं है। मूर्ख मानव में ही माया रूप कंकर को ग्रहण कर ले, परन्तु कंकर तो कंकर ही है। .