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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३३२
रजनी वासर वसती ऊजड़, गयण पयाले जाय । 'सांप खाय ने मुखडू थोथू , ए उखाणो न्याय ।
कुन्थु० ॥ २ ॥
मुगति तणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे । बयरीडु कांइ एहवु चिन्ते, नाखे अवले पासे ।।
कुन्थु० ॥ ३ ॥ पागम आगमधर ने हाथे, नावै किण विध प्रांक। किहां कणे जो हट करि हटकू, तो व्याल तणो परे वाकू ।
कुन्थु० ॥ ४॥ जो ठग कहूँ तो ठगतो न देखू, साहुकार पिण नाही। सर्व माहिने सहु थी अलगू, ए अचरज मन मांहि ।
कुन्थु० ॥ ५॥ जे जे कहूँ ते कान न धारे, पाप मते रहे कालो। सुर नर पंडितजन समझावे, समझे न म्हारो सालो।
- , कुन्थु० ॥ ६ ॥ मैं जाण्यो ए लिंग नपुसक, सकल मरद ने ठेले । बीजी बातें समरथ छे नर, एहने कोई न झेले ।
कुन्थु० ॥ ७ ॥ मन साध्यु तिण सघलू साध्यु, एह बात नहीं खोटी। इम कहे साध्यु ते नवि मानू, एक ही बात छे मोटी।
कुन्थु० ॥ ८ ॥ मनड़ो दुराराध्य ते वसि पाण्यु, पागम थी मति प्राणु। 'प्रानन्दघन' प्रभु म्हारो प्राणो, तो साचूं करि जाणु। ..
कुन्थु० ॥ ६ ॥