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श्री आनन्दघन पदावली-३३१
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अर्थ-भावार्थ-अपना आत्म-भाव एक चेतना के आधार से ज्ञानदर्शन रूप ज्ञायक भाव ही है। यही सार रूप आत्मा का परिवार है। अन्य सब साथ (धन, स्त्री, पुत्र आदि) तो संयोग-जन्य हैं, अस्थायी हैं। अतः हे आत्मन् ! तू समस्त प्रपचों को छोड़कर आत्म-भाव में ही रमण कर ॥ ११ ॥
अर्थ-भावार्थ-भगवान के श्रीमुख से ऐसा बोधप्रद उपदेश सुनकर आतमराम, चेतन भक्त-कवि कहता है कि हे प्रभो! आपके दर्शन से मेरा उद्धार हो गया, मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो गये ॥ १२ ॥
अर्थ-भावार्थ-भक्त-कवि आत्मविभोर होकर कहता है कि मेरा अहो भाग्य है, धन्य है मेरा भाग्य । मुझको (आतमराम को) नमस्कार हो, वन्दन हो। हे नाथ ! अनन्त फल-दाता उस दानेश्वर से जिसकी भेंट हो गई, वह सचमुच.धन्य है ।। १३ ॥
विवेचन-जब परमात्म स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है, तब इसी प्रकार के उद्गार निकलते हैं --"जो मैं हूँ, वह ही परमात्मा है; जो परमात्मा है, सो मैं हूँ। मैं ही मेरा उपास्य हूँ।"
अर्थ-भावार्थ --शान्ति-स्वरूप-प्राप्ति के मार्ग का शान्तिनाथ भगवान ने यह संक्षिप्त. वर्णन किया है। इसमें निज-स्वरूप एवं पर-स्वरूप को समझने का वर्णन है। इसका आगम ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार से वर्णन उपलब्ध है जो श्री शान्तिनाथ भगवान द्वारा बताया गया है ।। १४ ।।
अर्थ-भावार्थ-जो मनुष्य श्री शान्तिनाथ भगवान के स्वरूप का इस प्रकार भक्तिपूर्वक, निष्काम भाव से, एकाग्रतापूर्वक शुद्ध चित्त से ध्यान करेंगे वे अत्यन्त प्रानन्द-दायक परम-पद को प्राप्त करेंगे और संसार में अत्यन्त सम्मान प्राप्त करेंगे ।। १५ ।।
(१७)
श्री कुन्थु जिन स्तवन (राग-रामकली-अंबर देहु मुरारी हमारो-ए देशी) - कुन्थु जिन मनडू किम हो न बाजे हो । कुन्थु जिन०.... जिम जिम जतन करीने राखू, तिम तिम अलगू भाजे हो ।
कुन्थु० ॥ १॥