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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य -१३० जाने के पासे पड़ते हैं और सुबुद्धि से मुक्ति रूपी घर में जाने के पासे पड़ते हैं। चौपड़ में चौरासी खाने होते हैं और संसार में भी चौरासी लाख जीव योनियाँ हैं । आत्मा गोटी की तरह दुर्बुद्धि के योग से चार गतियों में परिभ्रमण करती है । मेरा प्राणी प्रात्मा चतुर्गति-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवता रूप चौपड़ खेल रहा है । गोट वाली चौपड़ के खेल की और गंजीफा के खेल की क्या समानता हो सकती है ? चतुर्गति चौपड़ के सम्मुख इन खेलों की क्या गिनती है ? ये खेल चौपड़ के समक्ष तुच्छ हैं । विवेकी मनुष्य इन अन्य खेलों को तनिक भी महत्त्व नहीं देते । बुद्धिमान व्यक्ति इन खेलों में अपना समय व्यर्थ नहीं गँवाते । वे तो जीवन की चौपड़ को महत्त्व देकर उसमें विजयी होना चाहते हैं ||१ || विवेचन - नरद ( गोटी), गंजीफा (ताश के पत्ते ) को आध्यात्मिक दृष्टि वाले विद्वान् गिनती में नहीं गिनते । अध्यात्म ज्ञानी मनुष्य चतुर्गति रूप चौपड़ को अच्छी तरह खेल सकते हैं और आत्मा चार गतियों में परिभ्रमण न करे, उसके लिए पर्याप्त ध्यान देते हैं । दुर्बुद्धि . से ही आत्मा राग-द्वेष के प्रपंच में फँसती है, दुर्बुद्धि से आत्मा जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं, उन्हें अपनी मान कर अनेक प्रकार की उपाधियाँ सहन करती है, दुर्बुद्ध धर्म के प्रति प्रीति एवं अधर्म के प्रति प्रीति होती है, दुर्बुद्धि से आत्मा देव, गुरु, धर्म को गिनती में नहीं गिनती और स्वयं जड़ की तरह आचरण करती है । दुर्बुद्धि से प्रेरितं आत्मा सात नरकों में बार-बार जाकर असह्य कष्ट सहन करती है । सद्गुरुत्रों के उपदेश से जब आत्मा ये बातें सम्यक् प्रकार से जान पाती है तब वह अन्तर से संसार की बाजी जीतने का प्रयत्न करती है | चेतन कहता है कि मेरा चेतन - स्वामी चौपड़ की बाजी खेलता है, दुर्बुद्धि के प्रपंचों का नाश करता है और सहज - लाभ प्राप्ति रूपी रस से रसिक बन कर संसार की बाजी जीतने के लिए ही ध्यान देता है । इस ग्रात्मा ने चतुर्गति रूप चौपड़ खेलने के लिए राग, द्वेष एवं मोह के पासे अत्यन्त प्रेमपूर्वक बनाये हैं । जैसा पासा आता है तदनुसार गोट चलाई जाती है । इस चतुर्गति रूप चौपड़ में आत्मा को राग-द्वेष और मोह के कारण ही परिभ्रमण करना पड़ता है; अर्थात् राग, द्वेष, मोह की प्रवृत्तियों में जैसी जैसी वृत्तियाँ उभरी हैं, उनके अनुसार ही आत्मा को गतियों एवं उत्पत्ति स्थानों में जाना पड़ता है ॥२॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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