________________
}
श्री आनन्दघन पदावली - १९३
जम नियम प्रासंरण जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी । प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी ॥ म्हारो० ।। २ ।।
मूल उत्तर गुण मुद्राधारी, परयंकासन चारी । रेचक पूरक कुम्भककारी, मनइन्द्री जयकारी || म्हारो० ।। ३ ।।
थिरता जोग जुगति अनुकारी, आपो आप विचारी । प्रातम परमातम अनुसारी, सीके काज सवारी ॥ म्हारो० ।। ४ ।।
अर्थ - आत्म अनुभव प्रेम का वृत्तान्त प्रद्भुत है । इस प्रात्मानुभव को पुरुष, स्त्री और नपुंसक तीनों वेदों से रहित अर्थात् केवली भगवान ही भोग सकते हैं ।। साखी ॥
विवेचन -- वेदोदय नवें गुणस्थान तक ही होता है और इसकी सत्ता भी नवे गुणस्थान तक ही है । क्षायिक भाव से तो वेदोदय एवं सत्ता का नाश नवें गुणस्थान में हों जाता है, किन्तु उपशम श्रेणी वाले के इनका उपशम भाव रहता है, इसलिए उन्हें प्रपूर्वकरण ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचा तो देता है पर क्षायिक भाव के बिना आगे न बढ़कर उन्हें पीछे लौटना ही पड़ता है । इसलिए केवली भगवान ही वेदन करते हैं ।
अर्थ - मेरा आत्मा रूपी अल्प वयस्क, अल्प- अभ्यासी, प्रल्प- कालिकसम्यक्त्वी संन्यासी जो देह रूपी मठ में निवास करने वाला है, वह इडा, पिंगला, नाडियों का मार्ग छोड़कर सुषुम्ना नाड़ी के घर आता है । वह आसन जमाकर सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर अनहद नाद करता हुआ चित्तवृत्ति को उसमें लीन कर देता है ।। १ ॥
विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मेरा आत्मा रूपी बाल - संन्यासी देह रूपी मन्दिर का निवासी है । इडा (चन्द्रस्वर, बायीं नासिका का स्वर ) पिंगला (सूर्यस्वर, दाहिनी नासिका का स्वर ) - इन दो नाड़ियों के स्वर का परित्याग करके सुषुम्ना ( दो नासिकाएँ साथ चलती हैं) के घर में निवास करता है । योगिगरण जब सुषुम्ना नाड़ी चलती है तब भगवान का ध्यान करते हैं । श्रीमद् सुषुम्ना नाड़ी चलती है तब