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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६४ ध्यान लगाकर उसका अनुभव बताते हैं। सुषुम्ना में ध्यान लगाकर ब्रह्मरंध्र में आसन जमाया अर्थात् आनन्दघनजी के आत्मा रूपी योगी ने ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिरता की। ब्रह्मरंध्र में स्थिरता करने के लिए योग के आठ अंगों की आवश्यकता होती है । अर्थ-यम-नियम पालन करने वाला, एक आसन में दीर्घकाल तक बैठने वाला, प्राणायाम का अभ्यासी, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान करने वाला व्यक्ति शीघ्र ही समाधि प्राप्त कर लेता है ॥२॥ विवेचन–ब्रह्मरंध्र में स्थिरता होने के लिए योग के आठ अंगों की आवश्यकता होती है-वे पाठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि । इस प्रकार अनुक्रम अंगपूर्वक योग का अभ्यास करने वाला ब्रह्मरन्ध्र में अनहद तान का अनुभव करता है और समाधि प्राप्त करके आत्मिक सुख भोगता है। अर्थ-यह बाल-संन्यासी संयम के मूल गुणों तथा उत्तर गुणों का धारक है, पर्यकासन का अभ्यासी है, रेचक-पूरक-कुम्भक प्राणायाम क्रियाओं का करने वाला है और मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला है ॥३॥ विवेचन -अध्यात्म मार्ग की अपेक्षा राग को इडा और द्वेष को पिंगला कहा जाता है। जब आत्मा राग-द्वेष का मार्ग परित्याग करके समता रूप सुषुम्ना के मार्ग में आता है तब ब्रह्मरन्ध्र में (अनुभव ज्ञान दशा में) आत्मा की समाधि का अनुभव होता है तब आत्म-स्वरूप में अनहद तान उत्पन्न होती है। अर्थ--इस प्रकार योग-साधना का अनुगमन करता हुआ वह संन्यासी स्थिरता रखकर अपने प्रात्म-स्वरूप का विचार करता हुआ आत्मा और परमात्म-पद का अनुसरण करता है तो उसके समस्त कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं ।।४।। विवेचन -श्रीमद् आनन्दघनजी योग-समाधि का अनुभव. करके भाव व्यक्त करते हैं कि यदि अपने शुद्ध स्वरूप का विचार किया जाये तो आत्मा परमात्मा बन जाता है और शुद्ध स्वरूप मोक्ष-कार्य की सिद्धि होती है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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