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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३५२
आत्म-साधना में ध्यान का विशेष महत्त्व है । यहाँ आलम्बन ध्यान पद्धति का निरूपण किया गया है । ध्यान में मन-वचन-काया के योगों को स्थिर करके एकाग्रता के लिए छह योग बताये गये हैं- १ मुद्रा, २ बीज, ३ धारणा, ४ अक्षर, ५ न्यास और ६ अर्थ विनियोग | (१) मुद्रा से तात्पर्य है -- बैठने, खड़े होने, लेटने आदि का तरीका; हाथ, मुँह, नेत्र, आदि की स्थिति । योग मुद्रा, जिन मुद्रा । ध्यान के समय हाथ, मुँह, पैर, नेत्र आदि किस तरह रखे जायें उसके लिए किसी भी योगासन को ग्रहण करना जैसे सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन आदि ।
(२) बोज - मंत्र ( ॐ ह्रीं श्रीं सहित जाप मंत्र, पंच परमेष्ठी जाप ) ( ३ ) धारणा - चित्त को बीज पर स्थिर करना ( ४ ) अक्षर - जाप मंत्र के अक्षर, पंच परमेष्ठी जाप के अक्षर । ( ५ ) न्यास - स्थापना अर्थात् हृदय-कमल दल, अष्ट दल कमल, सहस्र दल कमल पर जाप के अक्षरों को स्थापित करना । ( ६ ) अर्थ विनियोग - जाप के अक्षरों के साथ उनके का बोध होना ।
जो मुद्रा में स्थित होकर, बीज - जाप मंत्र ( पंच परमेष्ठी मंत्र ) पर धारणा करता हुआ, चित्तवृत्तियों को स्थिर करता हुआ, जाप के अक्षरों
स्थापित करता है, अर्थात् हृदय कमल अथवा प्रष्ट दल कमल अथवा सहस्रदल कमल पर जाप के अक्षरों को स्थापित करता है और साथ ही जाप अक्षरों के अर्थ का बोध रखकर ध्यान करता है, वह कदापि ठगा नहीं जाता । प्रस्रव रूप क्रियाएँ आत्मा को ठगती हैं, जो उन्हें नहीं करता, वह उगाया नहीं जाता और वह प्रवंचकं क्रिया का प्रवंचक फल अर्थात् अनन्त प्रात्मिक सुख भोगता है ।। ६ ।।
विवेचनः – जो प्रवंचक रूप धारण करके प्रवंचक क्रिया करता है, वह निश्चय ही आत्मिक सुख ( प्रवंचक फल ) भोगता है ।
अर्थ - भावार्थ:-श्रुत अर्थात् जैन आगमों के अनुसार पूर्ण रूप से चिन्तन करके बताता हूँ कि आगमों में सद्गुरु के जैसे लक्षण बताये गये हैं, वैसे सद्गुरु आज उपलब्ध नहीं हैं । अतः ऐसे सद्गुरु के आश्रय के for four करके भी आत्म-साधना नहीं कर सका, उसका चित्त में प्रबल विषाद (दुःख) रहता है ॥ १० ॥
अर्थ- भावार्थ - इसलिए हे जिनेश्वर नमिनाथ ! मैं कर जोड़ कर खड़ा हुआ आपके समक्ष प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे चारित्र की शुद्ध सेवा प्रदान करें ताकि आनन्द के समूह को प्राप्त करके मैं अनन्त आत्मिक सुख प्राप्त करू" ।। ११ ।।