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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६४ का भय दूर हो गया है और कर्म-रिपुत्रों पर उनकी जीत के नगारे बजे हैं ॥१॥ अर्थ-भावार्थ-छद्मस्थ अवस्था में क्षायोपशमिक वीर्य और शुभ लेश्या के साथ सदुद्देश्य में प्रयत्नशील बुद्धि को उनका अंग बनाकर सूक्ष्म एवं स्थूल क्रिया में रंग कर भगवान महावीर अत्यन्त उमंग से योगी बने हैं ॥ २ ॥ अर्थ-भावार्थ- असंख्य आत्म-प्रदेशों में असंख्य वीर्य अर्थात् अमित आत्म-बल है, जिससे मन-वचन-काया के असंख्य योगों की आकांक्षा होती है। इस योगप्रवृत्ति के बल से आत्मा बुद्धि के द्वारा यथा-शक्ति पुद्गलसेना शुभ लेश्या से गणना करती है अर्थात् कर्मवर्गणा को यथाशक्ति ग्रहण करती है ॥ ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-जो आत्मा उत्कृष्ट प्रात्म-बल के प्रभाव में आती है उसमें योग (मन-वचन-काया का) प्रवेश नहीं होता अर्थात् उस आत्मा में योग की प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि योंगों की स्थिरता से आत्मा तनिक भी आत्म-बल से नहीं हटती, नहीं डिगती ।। ४ । , विशेष --यहाँ चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था का वर्णन है। अर्थ-भावार्थ-जिस प्रकार कामी व्यक्ति काम-वासना के वश में होता है, उसी प्रकार से आत्मा भोगी बना है, आत्मा में रमण करने वाला है। इस शूरता के गुण से आत्मा उपयोगमय होकर अयोगी अवस्था प्राप्त कर लेता है अर्थात् सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है ॥ ५॥ अर्थ-भावार्थ-यह वीरता आत्मा में ही स्थित है। यह मैंने आपकी वाणी से जान लिया है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान एवं विशेष ज्ञान (श्रुतज्ञान) से अपना अचल स्थान मोक्ष-पद पहचान लिया है ॥ ६ ॥ अर्थ-भावार्थ-जिसने समस्त बाह्य एवं अभ्यन्तर आलम्बनों और साधनों का परित्याग कर दिया है और अपने से भिन्न भावों को नष्ट कर दिया है, ऐसा आत्मा अक्षय, शाश्वत दर्शन, ज्ञान और वैराग्य से प्रानन्दमय प्रभु होकर जागृत रहता है अर्थात् सिद्ध परमात्मा नित्य आत्म-ज्योति से जगमगाता रहता है ।। ७ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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