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श्री आनन्दघन पदावली-३६३
छउमच्छ वीरय लेस्या सगे, अभिसंधिज मति अंगे रे । सूछमथूल क्रिया ने रंगे, योगी थयो उमंगे रे ।
वीरजी० ॥ २॥ असंख प्रदेसे वोर्य असंखो, जोग प्रसंखित कंखे रे । पुद्गल सिण तिणे ल्यैसु विशेखे, यथासक्ति मति लेखे रे ।
वीरजी० ।। ३ ।। उत्कृष्टे वीरज ने वेसे, जोग क्रिया नवि पेसे रे । जोग तणी ध्रुवता ने लेसे, आतम सगति न खेसे रे ।
. वीरजी० ॥ ४ ॥ कामवीर्य वसे जिम भोगी, तिम प्रातम थयो भोगी रे । सूरपणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे । ..
वीरजी० ॥ ५ ॥ वीरपणु ते आतम ठाणे, जाण्यु तुमथी वाणे रे । ध्यान विनाणे सक्ती प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे ।
वीरजी० ॥ ६ ॥ आलंबन साधन जे त्यागे, पर परणति ने भांगे रे । अक्षय दर्शन ग्यान विरागे, 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे ।
वीरजी० ॥ ७ ॥
शब्दार्थ-तिमिर=अन्धकार। भागू=दूर हो गया। वागू रेबज रहा है। छउमच्छ छद्मस्थ । अभिसंधिज=विशेष प्रयत्न से उत्पन्न । सूछम सूक्ष्म । थूल स्थूल । कंख रे=कामना करते हैं। सिण=सेना । पेसे= प्रवेश करती है। खेसे रे=डिगती है। विनाणे=विज्ञान | विरागे = वैराग्य ।
अर्य-भावार्थ-मैं श्री महावीर परमात्मा के चरणों में वन्दना करता हूँ और उनके समान वीरत्व की याचना करता हूँ जिसके द्वारा उन्होंने कर्म-शत्रुओं को जोता है। उनके मिथ्यात्व मोह रूपी अन्धकार