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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-४६
रहा है कि आप अपनी शक्ति लगाकर जो भी कर सकते हो, वह कर लो। ज्ञान, दर्शन और शाश्वत सुखमय स्वामी का शरण ग्रहण करने के पश्चात् मुझे अब किसी का कोई भय नहीं रहा। मैं राग-द्वेष आदि शत्रुनों को भी नहीं गिनता ॥ २॥
.... संसार के लोग मुझे अपराधी समझकर भले ही भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखें, मन में करोड़ों प्रकार की आशंकाएं करें, मुझे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है। हे आनन्दघन प्रभो! आप यह निश्चय मानो कि यह सेवक तो आप ही का हो चुका है। लोग करोड़ों रीतियों से मुझे दोष-दृष्टि से देखें तो भी मेरी कोई हानि नहीं है। बाह्य दृष्टि से लोग अच्छी तरह मेरा स्वरूप न समझ सकें और मेरे दोष देखें जिससे मैं अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं हूँ। हे प्रानन्दघनभूत चेतन ! आप निश्चय मानें कि मैं आपका ही हूँ। मुझे केवल.आपकी कृपादृष्टि चाहिए ॥ ३ ॥
__ (राग-आसावरी) प्रवधू क्या माँगू गुनहीना, वै तो गुन गगन प्रवीना। गाय न जानू बजाय न जानू, न जानूँ सुरभेवा । रीझ न जाने रिझाय न जानू, न जानू पद-सेवा ।
॥अवधू० ।। १॥ वेद न जानू, कतेब न जा, जानें न लक्षण छंदा । तरक वाद-विवाद न जानू, न जाने कवि फंदा ।
- ॥ अवधू० ॥ २ ॥ जाप न जानू जुवाब न जानू, न जाने कथ वाता । भाव न जानू, भगति न जान, जानू न सीरा ताता।
॥ अवधू० ॥ ३ ॥ ज्ञान न जानू, विज्ञान न जानू, न जानू भज नामा। प्रानन्दघन प्रभु के घर द्वारे, रटन करूँ गुन धामा ।
॥ अवधू० ॥ ४ ॥