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श्री श्रानन्दघन पदावली - ४५
कितने ही मनुष्य - परमात्मा को समस्त जड़-जंगम तथा समस्त स्थानों में व्याप्त मानते हैं, किन्तु फिर भी उसकी अलग सत्ता स्वीकार करते हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जो आनन्दस्वरूप भगवान के अमृतमय वचनों को जानते हैं, उनके वचनों पर विश्वास करते हैं, वे ही परमार्थ (मुक्ति) को प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥
( ११ )
(राग - कल्याण)
मोकु कोऊ कैसइहु तको ।
मेरे काम इक प्रान जीवन सुं, और भावे सो बको || कु० ।। १ ।। हूँ आयो प्रभु शरण तुम्हारी, लागत नाहि धको । भुजन उठाइ कहूँ श्रौरन सों, करहों जु करही सको || मोकु० || २ |
अपराधी चित्त ठान जगतज़न, कोरिक भाँति चको ।
श्रानन्दघन प्रभु निहचे मानो, इहजन
रावरो थको ।। मोकु०।।३।।
।
अर्थ – मुझे कोई कैसी ही दृष्टि से देखे, मुझे तो मेरे प्रारण-जीवन से आराध्य से काम है । संसार के लोग भले ही मेरे लिए कुछ भी कहते रहें, मुझे उनकी ओर नहीं देखना है । अपने प्रारण - जीवन को प्राप्त करने के लिए मैं कुछ भी करूंगा । मैं दीवानी दुनिया की बात पर ध्यान देने वाला नहीं हूँ संसार के लोग प्रत्येक व्यक्ति की आलोचना किये बिना नहीं रहते । लोगों की आलोचना से कोई नहीं बचा । तीर्थंकर भी नहीं बचे, हमें अपने कार्य में ही ध्यान देना चाहिए । संसार चाहे कुछ भी कहे, परन्तु मुझे तो अपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप भाव प्रारण के पति ऐसे प्रात्म-स्वामी से ही काम है । जो व्यक्ति मेरे कार्य का प्रयोजन नहीं जान सकते हैं, वे मेरी निन्दा करें, क्या हानि है ?
उसमें मेरी
संसार के लोग महान् महात्मानों की भी आलोचना जिससे वे आत्म-धर्म प्राप्ति के कार्य का परित्याग नहीं कर देते
करते हैं ।
।। १ ।।
हे प्रभो ! हे स्वामी ! मैं प्रापकी शरण में आ गया हूँ । संसार की निन्दा - स्तुति मुझे धक्का नहीं दे सकती, मुझे अपने ध्येय से हटा नहीं सकती । मैं तो हाथ उठा-उठाकर, पुकार पुकार कर कह